कलयुग में ऋण के बिना, सरे न कोई काम।
बड़ी बड़ी जो हस्तियाँ , ऋण ले बनी तमाम ॥
टाँक पैबंद वस्त्र में, तब ढकते थे लाज।
लोग प्रदर्शन कर रहे, उन्हें फाड़कर आज॥
मूर्ति मात्र साधन सदा, ध्यान लगाएँ नित्य।
निराकार ईश्वर सदा, देखता सबके कृत्य॥
मान पुरुष को दे भले, सामाजिक परिवेश।
घर पर तो चलता सदा, पत्नी का आदेश॥
कर विवेचना विविध विधि, रचते दोहा गीत।
मात्रिक गण क्यों खो गए, समझ न आए मीत॥
ओम प्रकाश शर्मा
परीमहल, शिमला -9
Comment
Saurabh Pandey जी उत्साहवर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय ओमप्रकाश शर्मा जी, आपके रचना-प्रयास से संभवत: पहली बार दो-चार हो रहा हूँ क्या ?
तनिक सचेत रहें, तो दोहे छंद पर आपकी पकड़ बेहतर हो सकेगी.
इस मंच पर उपलब्ध दोहा छंद के विधान को पढ़ कर कृपया मनन करें. यह ही उचित होगा.
शुभ-शुभ
आदरणीय Samar kabeer जी उत्साहवर्धन और सही मार्ग दर्शन के लिए आपका हार्दिक आभार ।
जनाब ओमप्रकाश जी आदाब,दोहों का अच्छा प्रयास है,लेकिन अभी आपको इसके विधान का अध्यन करना होगा, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई ओम प्रकाश जी, सुंदर दोहे हुए हैं । हार्दिक बधाई ।
दूसरे दोहे में वसन को वस्त्र करने से विन्यास अच्छा लगेगा। देखिएगा
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