उम्र भर जो भी ग़रीबी के निशाँ देखेगा
कैसे मुमकिन है वो बाँहों में जहाँ देखेगा
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कितना बारूद भरा होगा बताना मुश्किल
लफ्ज़ से कोई निकलता जो धुआँ देखेगा
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दिल की रानाई का अंदाज़ा लगाए कैसे
जो फ़क़त हुस्न कि फिर शोला-रुख़ाँ* देखेगा
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दर्द महसूस भला ग़म का उसे हो क्यों कर
ज़िंदगी भर जो कोई ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ* देखेगा
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ज़ख़्म से ख़ून भी रिसता है कोई क्या जाने
सिर्फ़ तस्वीर में जो नोक-ए-सिना* देखेगा
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नौजवाँ आज परेशान वतन में कब तक
हार कर बैठा हुआ कार-ए-जियाँ* देखेगा
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कब तलक जिस्म शहीदों के फ़ना होंगे और
मुल्क गद्दारों के बेशर्म बयाँ देखेगा
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ख़ुदक़ुशी मुल्क से कब जाएगी रुख़्सत होकर
कब तलक खेत यहाँ अब्र-ए-रवाँ* देखेगा
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वक़्त अब हाथ में अपने है मिटा देंगे 'तुरंत '
जो सियासत में फ़क़त सूद-ओ-जियाँ* देखेगा
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी |
(मौलिक एवं अप्रकाशित )
शब्दार्थ -शोला-रुख़ाँ*=आतिशी कपोल ,ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ*=आर्तनाद को रोकना ,नोक-ए-सिना*=तलवार की नोक ,कार-ए-जियाँ*=फल रहित कार्य ,अब्र-ए-रवाँ*=घूमते हुए बादळ ,सूद-ओ-जियाँ*=लाभ हानि
Comment
जनाब गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत' जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले का भाव स्पष्ट नहीं,ग़ौर करें ।
''जो फ़क़त हुस्न कि फिर शोला-रुख़ाँ* देखेगा"
इस मिसरे को यूँ करना उचित होगा:-
'जो तेरे हुस्न को ऐ शोला रुख़ाँ देखेगा'
' ज़िंदगी भर जो कोई ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ* देखेगा'
'ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ' देेखने की चीज़ नहीं ,ग़ौर
करें ।
'मुल्क गद्दारों के बेशर्म बयाँ देखेगा'
'बयाँ' देखे नहीं सुने जाते है ।
'ख़ुदक़ुशी मुल्क से कब जाएगी रुख़्सत होकर'
इस मिसरे में 'जाएगी' और 'रुख़्सत' दोनों शब्द एक साथ मुनासिब नहीं ।
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