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ग़ज़ल (सुन कर ये तिरी ज़ुल्फ़ के मुबहम से फ़साने)

सुन कर ये तिरी ज़ुल्फ़ के मुबहम से फ़साने,
दश्ते जुनुं में फिरते हैं कितने ही दीवाने..

कब साथ दिया उसका दुआ ने या दवा ने,
आशिक़ को कहाँ मिलते हैं जीने के बहाने..

मुमकिन है तुम्हें दर्स मिले इनसे वफ़ा का,
पढ़ते कुँ नहीं तुम ये वफ़ाओं के फ़साने..

इस दौर के गीतों में नहीं कोई हरारत,
पुर-सोज़ जो नग़में हैं वो नग़में हैं पुराने..

इस इश्क़ मुहब्बत में फ़क़त उन की बदौलत,
ज़ोहेब तुम्हें मिल तो गये ग़म के ख़ज़ाने..

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मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 24, 2018 at 7:30pm

आ. जोहेब जी, अच्छी गजल हुयी है । हार्दिक बधाई ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 24, 2018 at 7:29am

आ. ज़ोहेब जी,
अच्छी ग़ज़ल है ..
दीवाने को दिवाना  पढना दोषपूर्ण है .. मतला बदल लीजिये 
सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 23, 2018 at 5:01pm

वाह बहुत ही खूब ग़ज़ल हुई है ज़नाब..मुबारक़

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