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2122 1212 22

गुल जो सूखा किताब में देखा ।
आपको फिर से ख़्वाब में देखा ।।

बारहा चाँद की नज़ाक़त को ।
झाँक कर वह नकाब में देखा ।।

मैकदे में गया हूँ जब भी मैं ।
तेरा चेहरा शराब में देखा ।।

वस्ल जब भी लगा मुनासिब तो।
कोई हड्डी कबाब में देखा ।।

तोड़ पाता उसे भला कैसे ।
हुस्न उसका गुलाब में देखा ।।

डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा ।।

लुट गईं रोटियां गरीबों की ।
हादसा इंकलाब में देखा ।।

तेरे आने का जिक्र होते ही ।
रंग आता शबाब में देखा ।।

कौन कहता है तुम नशे में हो ।
मैंने तुमको हिसाब में देखा ।।

हैं मुहब्बत बड़ी या फिर दौलत ।
आपके इंतखाब में देखा ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी

मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Samar kabeer on June 29, 2018 at 3:20pm

जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।

4थे शैर में 'हड्डी' शब्द स्त्रीलिंग है, इसके कारण रदीफ़ 'देखा' की जगह "देखी" हो रही है,मिसरा बदलने का प्रयास करें ।

Comment by Neelam Upadhyaya on June 29, 2018 at 1:01pm

आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी, नमस्कार । अच्छी रचना । हार्दिक बधाई ।

 

Comment by Shyam Narain Verma on June 29, 2018 at 11:28am
इस खूबसूरत रचना के लिये दिली दाद कुबूल करें
Comment by gumnaam pithoragarhi on June 28, 2018 at 1:53pm

वाह अच्छी ग़ज़ल हुई है बधाई.....

Comment by Naveen Mani Tripathi on June 27, 2018 at 6:39pm

आ0 रक्षिता सिंह जी तहे दिल से शुक्रियः ।

Comment by रक्षिता सिंह on June 27, 2018 at 1:17pm

आदरणीय नवीन जी नमस्कार,

 बहुत ही उम्दा गजल..

".डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा "

मुबारकबाद कुबूल फरमायें ।

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