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आदर्शवाद - लघुकथा

"मैं मानती हूँ डॉक्टर, कि ये उन पत्थरबाजों के परिवार का ही हिस्सा हैं जिनका शिकार हमारे फ़ौजी आये दिन होते हैं लेकिन सिर्फ इसी वज़ह से इन्हें अपने 'पढ़ाई-कढ़ाई सेंटर' में न रखना, क्या इनके साथ ज्यादती नहीं होगी?" हजारों मील दूर से घाटी में आकर अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर औरतों के लिये 'हेल्प सेंटर' चलाने वाली समायरा, 'आर्मी डॉक्टर' की बात पर अपनी असहमति जता रही थी।

"ये फ़ालतू का आदर्शवाद हैं समायरा, और कुछ नहीं।" डॉक्टर मुस्कराने लगा। "तुमने शायद देखा नहीं हैं पत्थरबाजों की चोट से ज़ख़्मी जवानों और उनके दर्द को, अगर देखा होता तो...!"

"हाँ नहीं देखा मैंने!" समायरा ने उनकी बात बीच में काट दी। "क्योंकि देखना सिर्फ आक्रोश पैदा करता हैं, बदले की भावना भरता है मन में।"

"तो तुम्हें क्या लगता हैं कि हमारे फ़ौजी जख्मी होते रहे और हम माफ़ी देकर उनका दुस्साहस बढ़ाते रहे।"

"नहीं, मैं भी चाहती हूँ कि उन्हें सख्त सजा मिले ताकि वे आइंदा ऐसा करने की हिम्मत न करें। लेकिन ये सब तो क़ानून के दायरे में हैं और मैं नहीं समझती कि इस सजा में उनके परिवार को भागीदार बना देना उचित हैं डॉक्टर।" समायरा की नजरों में एक चमक उभरी आई थी।

"यानि कि आप दुश्मनों का साथ देना चाहती हैं!" डॉक्टर की बात में एक व्यंग झलक आया।

"डॉक्टर, हमारे दुश्मन ये भटके हुए लोग या इनके परिवार वाले नहीं हैं। हमारी दुश्मन तो सदियों से इनके विचारों में पैठ बनाये बैठी नफरत और निरक्षरता की अँधेरी रातें है, हमें इसी रात को सुबह में बदलना है।" वह गंभीर हो गयी।

"तो इस फ़ालतू आदर्शवाद को अपना सिद्धांत मानती हैं आप!" डॉक्टर के चेहरे की व्यंग्यात्मक मुस्कान गहरी हो गयी।

"नहीं! ये फ़ालतू आदर्शवाद नहीं, जीवन का सच हैं जो हर युग में और भी अधिक प्रखर हो कर सामने आता हैं।"

"अच्छा! और कौन था वह जिसने ये आदर्श दिया तुम्हे।" सहसा डॉक्टर खिलखिला उठा।

"एक फ़ौजी था डॉक्टर साहब.....!" अनायास ही समायरा भावुक हो गयी। "जिसने अपनी मोहब्बत भरी अंगूठी तो मुझे पहना दी थी लेकिन ऐसे ही कुछ पत्थरबाजों के कारण अपनी क़समों का सिन्दूर मेरी मांग में भरने कभी नहीँ लौट सका।"

डॉक्टर की मुस्कराहट चुप्पी में बदल गयी थी लेकिन समायरा की आँखें अभी भी चमक रही थी।

"मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by VIRENDER VEER MEHTA on April 2, 2018 at 2:11pm

 लघुकथा पर आपकी सुंदर प्रोत्सहान देती प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार भाई अजय तिवारी जी। शुक्रिया

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on April 2, 2018 at 2:10pm

आदरणीय भाई सुरेन्द्र जी, लघुकथा पर आपकी प्रतिक्रिया के लिये दिल से आभार। शुक्रिया भाई जी ...

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on April 2, 2018 at 2:10pm

आदरणीया भाई आशुतोष मिश्र जी, लघुकथा पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार। शुक्रिया...

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 30, 2018 at 2:26pm

आदरणीय वीरेंद जी इस लघु कथा के माध्यम से आपने सार्थक सन्देश दिया है रचना पर हार्दिक बधाई सादर 

Comment by नाथ सोनांचली on March 30, 2018 at 2:45am

आद0 वीरेंद्र वीर मेहता जी सादर अभिवादन।बढिया और शशक्त लघुकथा लिखी आपने। इस प्रस्तुति पर बधाई आपको

Comment by Ajay Tiwari on March 29, 2018 at 5:58pm

आदरणीय वीरेन्द्र जी, एक संवेदनशील विषय की कथा में इस प्रभावी प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई. 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on March 29, 2018 at 3:18pm

नैतिकता और आदर्शवादिता के लिए पढ़ा-लिखा होना, उच्च शिक्षित होना कतई अनिवार्य नहीं है आदरणीय टिप्पणीकर्ताओं। कबीरदास जी, महापुरुषों और पैग़ंबर हज़रात से  हमें सीख लेना चाहिए।  

बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब वीरेंद्र वीर मेहता जी आपकी जवाबी टिप्पणी के लिए। कभी कभी मुझे भी लगता है कि पात्र के बड़े संवादों में ही सही भावाव्यक्ति संभव है मेरी लेखनी की शैली में।

नया शीर्षक सुझाव : // प्रखर आदर्शवाद // प्रखर नेकियां//.......... 

//मिसालियत-पसंद//....आदि!!!!!

Comment by Nita Kasar on March 29, 2018 at 1:04pm

पत्थरबाज़ दोषी हो सकते है उनके परिवार वाले नही ।आदशवाद विचारों से आता है यदि वे पढ़ेलिखे शिक्षित होते तो एेसी घटनाओं में शामिल ना होते ।समाज की मुख्यधारा शामिल करने से ही से ही उन्है भटकाव से बचाया जा सकता है ।उम्दा कथा के लिये बधाई आद० वीरेंद्र मेहता जी ।

Comment by surender insan on March 29, 2018 at 9:51am

जी आद. वीरेंद्र भाई जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका।

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on March 28, 2018 at 9:09pm
आदरणीया भाई सुरेन्द्र जी, लघुकथा पर आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिये सादर आभार। शुक्रिया। आपने इसकी शब्द सीमा पर अपनी उत्सुकता दिखाई है। भाई जी रचना एक सामान्य लघुकथा से कुछ अधिक लगती जरूर है लेकिन सीमा से कहीं बाहर नहीँ जाती। वस्तुतः कभी कभी कथ्य भी अपने हिसाब से शब्दों की सीमा को तय कर लेता है।
बाकी लघुकथा के वरिष्ठ अवश्य ही इस पर और अधिक सकारत्मक प्रतिक्रिया दे सकते है। सादर।

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