तेरी अधखुली सी आँखें, भंवरे कँवल में जैसे.
मदहोश सो रहे हों , अपने महल में जैसे.
चुनरी पे तेरी सलमा-सितारे हैं यूँ जड़े.
सरसों के फूल खिलते, धानी फसल में जैसे.
शर्मो-हया है इनकी वैसी ही बरक़रार.
देखी थी इनमें मैंने पहली-पहल में जैसे.
जुर्मे-गौकशी को कानूनी सरपनाही.
जी रहे हैं अब भी, दौरे-मुग़ल में जैसे.
वैसे ही होना होश जरूरी है जोश में.
है अक़ल का होना कारे-नक़ल में जैसे.
बहके बहर तो समझो ‘हिन्दुस्तान’ की बजाए.
बहके कदम से मैकश आया ग़ज़ल में जैसे.
गंगा धर शर्मा ‘हिन्दुस्तान’
अजमेर (राज.)
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
हार्दिक बधाई, गुणी जनों की बात का संज्ञान लें ।
आद0 गंगाधर जी सादर अभिवादन। अगर अरकान लिख दें तो उसके हिसाब से कुछ कहा जाए क्योंकि कई जगह लय भंग हो रही है। सादर
जनाब गंगाधर शर्मा 'हिन्दोस्तान' जी आदाब,ग़ज़ल अभी बहुत समय चाहती है,कई मिसरों में लय भंग है, कई क़वाफ़ी ग़लत हैं,मंच के नियमानुसार ग़ज़ल के साथ आपने अरकान भी नहीं लिखे हैं,मेरे ख़याल से इस ग़ज़ल के अरकान' मफ़ऊल फ़ाइलातुन मफ़ऊल फ़ाइलातुन' लिए हैं ।
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