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रंग बिरंगा हो गया हूँ

रंग बिरंगा हो गया हूँ,

------------------------------

जैसे
कच्ची दोमट
मिट्टी का धेला
धीरे धीरे घुलता है
बारिस के पानी में
और पानी मटमैला मटमैला हो जाता है
मिट्टी की सोंधी सोंधी महक के साथ
बस ऐसी ही
तुम घुलती हो मुझमे
और घुलता जाता है
तुम्हारी आँखों की पुतली का
ये कत्थई रंग

सिर्फ आँखों का रंग ही क्यूँ
तुम्हारे काजल का गहरा काला
आँचल का आसमानी
गालों का गुलाबी
होंठो का मूँगिया
और तुम्हारी हंसी का दूधिया रंग
मेरे वज़ूद में घुल मिल जाते हैं
तुम्हारे स्नेह और प्रेम की बारिस में

तुम देखो न 'मै कितना रंग बिरंगा हो गया हूँ,
और रंग बिरंगी हो गयी है मेरी कविता, बिलकुल तुम्हारी तरह '

क्यूँ है न ??

देखो ! देखो, तुम हंसना नहीं
और ये मत कहना तुम ' तुम पागल हो '

मुकेश इलाहाबादी ----------------------

मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment by SALIM RAZA REWA on September 10, 2017 at 10:31pm
ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई
Comment by Mahendra Kumar on September 10, 2017 at 8:03pm

बहुत ही अच्छी कविता प्रस्तुत की है आ. मुकेश जी आपने. मेरी तरफ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. कुछ टंकण त्रुटियाँ हैं उन्हें देख लीजिएगा जैसे :

//मेरे वज़ूद में घुल मिल जाता है
तुम्हारे स्नेह और प्रेम की बारिश में//

बहुत-बहुत बधाई. सादर.

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on September 9, 2017 at 10:51pm

aabhar mitra - hauslaa aafzaee ke liye Sri Samar Kabeer jee aur Raaz nawadavee

Comment by Samar kabeer on September 7, 2017 at 10:28pm
जनाब मुकेश जी आदाब,बहुत सुंदर और रंगीली रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
20वीं पंक्ति में 'बारिस'को "बारिश" कर लें ।
Comment by राज़ नवादवी on September 7, 2017 at 8:16pm

आदरणीय  MUKESH SRIVASTAVA जी, सुन्दर कविता लेखन पर बधाई स्वीकार करें. रंगों की मनोहर छटा उकेरी है. मुबारकबाद 

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