जंगल बदल चुके हैं
बस्तियों में या फिर
फॉर्म हाउसेस में
लिहाज़ा अब
जंगल में
हरे भरे फलों से लदे
पेड़ नहीं मिलते …
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 20, 2020 at 5:30pm — 1 Comment
एक
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मुझे,
मालूम है आप
मेरी लापरवाहियां और बेतरतीबी की लिए
ऊपर ऊपर डांटते हुए भी
अंदर अंदर खुशी से और मेरे लिए प्रेम से भरपूर रहती हो
मेरे बिखरे हुए कपड़ों व किताबों को सहेजना अच्छा लगता है
पर यहाँ हॉस्टल में आ कर अब मुझे अपने कपडे खुद तह कर के रखना सीख लिया है
वहां तो आप सुबह ब्रश में टूथ पेस्ट भी आप लगा के देती थी
टोस्ट में मक्खन भी लगा के हाथ में पकड़ा देती थी
और प्यार भरी झिड़की से जल्दी से खाने की हिदायत देती थी
पर…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 15, 2020 at 5:30pm — No Comments
प्रेम गली अति सांकरी
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सुमी,
सुना है, किसी सयाने ने कहा है। ' प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय'
जब कभी सोचता हूँ इन पंक्तियों के बारे में तो लगता है, ऐसा कहने वाला, सयाना
रहा हो या न रहा हो, पर प्रेमी ज़रूर रहा होगा,जिसने प्रेम की पराकष्ठा को जाना होगा
महसूस होगा रोम - रोम से , रग - रेशे से, उसके लिए प्रेम कोई शब्दों का छलावा न
रहा होगा, किसी कविता का या ग़ज़ल का छंद और बंद न रहा होगा, किसी हसीन
शाम की यादें भर न रही होगा,…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 12, 2020 at 1:58pm — 4 Comments
गुफा
से निकले हुए लोगों ने
'कुर्सी' बनाई,
अपने राजा के लिए
ज़मीन पर बैठे - बैठे
राजा कुर्सी पर बैठा है शान से
कुर्सी बनाने वाले ज़मीन पर
सबसे पहली कुर्सी 'पत्थर' की थी
फिर इंसान ने लकड़ी की कुर्सी बनाई
बाद में सोने ,चाँदी ,हीरे, जवाहरात की भी....
इतिहास में तो कई बार नरमुंडों की भी कुर्सियां बनाई गयी
और फिर उस पर बैठ के 'राजा' बहुत खुश हुआ...
कुर्सी बनाई गयी थी
इस उम्मीद में कि इस पर बैठा हुआ
राजा राज्य में
सुख शांति…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 23, 2017 at 3:06pm — 5 Comments
मुट्ठी भर
ताकतवर
और बुद्धिमान
लोगों ने
इकठ्ठा किया
ढेर सारे लोगों को
और
आवाहन किया
कहा
"हमें इस धरती को
स्वर्ग बनाना है
और बेहतर बनाना है "
और हम
चल पड़े
तमाम जंगल काटते हुए
पहाड़ों को रौंदते…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 18, 2017 at 3:29pm — 3 Comments
चुन्नों, मेरा चश्मा कंहा रखा है ? चुन्नो मेरी नयी वाली कमीज नहीं मिल रही है, चुन्नो तुमने मेरा रुमाल देखा है क्या? चुन्नो एक कप चाय मिलेगी क्या? चुन्नो चुन्नो चुन्नो सच घर आते ही चुन्नो चुन्नो के नाम की माला जपने लगता हूं। सच आफिस मे रहता हूं तो आफिस की छोटी छोटी बातें नही भूलती पर घर आते ही जैसे यादें हैं कि साथ छोड के फिर से आफिस मे ही दुपुक जाती हैं ये कह के कि जाओ अब अपनी चुन्नो के साथ ही रहो मेरी क्या जरुरत है वो जो है न तुम्हारी और…
ContinueAdded by MUKESH SRIVASTAVA on September 17, 2017 at 11:30am — 5 Comments
Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 9, 2017 at 11:06pm — 8 Comments
रंग बिरंगा हो गया हूँ,
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जैसे
कच्ची दोमट
मिट्टी का धेला
धीरे धीरे घुलता है
बारिस के पानी में
और पानी मटमैला मटमैला हो जाता है
मिट्टी की सोंधी सोंधी महक के साथ
बस ऐसी ही
तुम घुलती हो मुझमे
और घुलता जाता है
तुम्हारी आँखों की पुतली का
ये कत्थई रंग
सिर्फ आँखों का रंग ही क्यूँ
तुम्हारे काजल का गहरा काला
आँचल का आसमानी
गालों का गुलाबी
होंठो का मूँगिया
और तुम्हारी हंसी का दूधिया…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 7, 2017 at 4:39pm — 5 Comments
चुप्पी में
कई चीखते हुए सवाल हैं
शायद
जिनके उत्तर
किसी भी पोथी
किसी भी दिग्ग्दर्शिका
किसी भी धर्मग्रन्थ
में नहीं हैं
अगर रहे भी हों तो
उन्हें मिटा दिया गया है
हमेसा हमेसा के लिए
ताकि
इन चुप्पियों से
कोई आवाज़ न उठे
चुप कराने वालों के ख़िलाफ़
मुकेश इलाहबदी --------
मौलिक और अप्रकाशित
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 4, 2016 at 11:11am — 13 Comments
प्रिये,
सच तो ये है
जब तक मै रहूंगा ‘आदम’
और तुम ‘ईव’
तब तक हम खाते रहेंगे ‘सेब’
भोगते रहेंगे 'नर्क'
इससे तो बेहतर है
'मै' बन जाउं 'जंगल'
घना ओर बियाबान
तुम बहो उसमे
'नदी' सा हौले - हौले
या फिर मै
टंग जाउं आसमान मे
चॉद सा
और तुम बनो
मीठे पानी की झील
सांझ होते ही मै
उतर आउं जिसमे
चुपके से,
हिलूं। तैरूँ। इतराऊँ
सुबह होते ही फिर
टंग जाऊँ आसमान मे
या तो,
ऐसा करते हैं
मै बन जाता हूं…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on January 28, 2016 at 11:48am — 7 Comments
सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी। पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति।
सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on January 13, 2016 at 1:00pm — 7 Comments
जब
तुम हंसती हो
झरते हैं,
दशों दिशाओं से
इंद्रधनुषी झरने
हज़ार - हज़ार तरीके से
नियाग्रा फाल बरसता हो जैसे
तब,
सूखी चट्टानों सा
मेरा वज़ूद
तब्दील हो जाता है
एक हरी भरी घाटी में
जिसमे तुम्हारी
हंसी प्रतिध्वनित होती है
और मै,
सराबोर हो जाता हूँ
रूहानी नाद से
जैसे कोई योगी नहा लेता है
ध्यान में उतर के
अनाहत नाद की
मंदाकनी में
मुकेश इलाहाबादी ----
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 30, 2015 at 1:00pm — 10 Comments
सारा आलम,
धुँआ - धुँआ हो जाये
इसके पहले
बचा लेना चाहता हूँ
थोड़ी से 'हवा'
पारदर्शी और स्वच्छ
जो बहुत ज़रूरी है
स्वांस लेने के लिए
ज़िंदा रहने के लिए…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 4, 2015 at 9:30am — 4 Comments
Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 16, 2015 at 12:00pm — 5 Comments
माँ पढ़ लेती है
अपनी मोतियाबिंदी आखों
और मोटे फ्रेम के चश्मे से
रामायण की चौपाइयां
हिंदी अखबार की
मुख्य मुख्य ख़बरें
यहाँ तक कि,
मोबाइल में
अंग्रेज़ी में लिखे नाम भी
पढ़ लेती हैं
कि यह छोटके का फ़ोन है
कि यह बड़के का फ़ोन है
कि बिटिया ने फ़ोन किया है
भले ही बड़ी बड़ी किताबें न पढ़ पाती हों
पर आज भी पढ़ लेती हैं
हमारा चेहरा
हमारा मन
हमारा दुःख
हमारी तकलीफ…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on July 10, 2015 at 11:29am — 4 Comments
एक
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मेरा नाम बिट्टो है,
कल मेरे गाँव का मेला है
सब खुश हैं
मेरी सहेली चुनिया
कह रही थी वह अब की
कान के बुँदे और कंगन लेगी
गुड्डू कह रहा था
वह इस बार बाबू से कह के
मेले में नुमाइश देखेगा
मेरा छुटका भाई
बैट बाल लेगा
अम्मा अपना टूटा तवा बदलेंगी
बाबू कुछ नहीं लेंगे
और मै भी कुछ नहीं लूंगी
क्यों कि हमें मालूम है
उनके पास बहुत ज़्यादा पैसे नही हैं
मै सिर्फ चुपचाप मेला देख के आ जाऊँगी…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on July 10, 2015 at 11:00am — 3 Comments
सडक एक नदी है।
बस स्टैण्ड एक घाट।
इस नदी मे आदमी बहते हैं। सुबह से शाम तक। शाम से सुबह तक। रात के वक्त यह धीरे धीरे बहती है। और देर रात गये लगभग रुकी रुकी बहती है। पर सुबह से यह अपनी रवानी पे रहती है। चिलकती धूप और भरी बरसात मे भी बहती रहती है । भले यह धीरे धीरे बहे। पर बहती अनवरत रहती है।
सडक एक नदी है इस नदी मे इन्सान बहते हैं। सुबह से शाम बहते हैं। जैसा कि अभी बह रहे हैं।
बहुत से लोग अपने घरों से इस नदी मे कूद जाते हैं। और बहते हुये पार उतर जाते हैं। कुछ लोग…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on May 1, 2015 at 10:27am — 8 Comments
थोड़ी छाँव और
ज़्यादा धूप में बैठी
बुढ़िया भी
अपने
चार करेले और
दो गड्डी साग न बिकने
पर उतना दुखी नहीं हैं
जितना नगर श्रेष्ठि
नए टेंडर न मिलने पर है
कलुवा
हलवाई की भटटी
सुलगाते हुए अपने
हम उम्र बच्चों को फुदकते हुए
नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ
स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है
जितना सेठ जी का बेटा
रिमोट वाली गाड़ी न पा के है
प्रधान मंत्री जी
हज़ारों किसान के सूखे से
मर जाने की खबर…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on April 21, 2015 at 12:31pm — 9 Comments
गौरैया
खुश थी
चोंच मे सतरंगी सपने लिये
आसमान मे उड रही थी
उधर,
गिद्ध भी खुश था
गौरैया को देखकर
उसने अपनी पैनी नजरे गडा दी
मासूम गौरैया पे,
और दबोचना चाहा अपने खूनी पंजे मे
गौरैया, घबरा के भागी पर कितना भाग पाती ??
आखिर,
गिद्ध के पंजे मे आ ही गयी
गौरैया फडफडा रही थी, रो रही थी
गिद्ध खुश था अपना शिकार पा के
कुछ देर बाद
गौरैया अपने नुचे और टूटे पंखों के साथ
लहूलुहान जमीं पे पडी…
ContinueAdded by MUKESH SRIVASTAVA on March 23, 2015 at 11:30am — 9 Comments
पहाड़ और पीठ
एक
पहाड़,
सिर्फ पीठ होता है
मुह होता तो बोलता
पहाड़ के पैर भी नही होते
हाथ भी
वरना वह चलता
कुछ करता या,
उठता बैठता भी
पहाड़, अपनी पीठ पर
लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,
हरी भरी झील भी
सड़क और बस्तियां भी
और कुछ नही बोलता
क्यों कि,
पहाड़ सिर्फ पीठ है
और पीठ कुछ नही बोलती
दो,
पीठ,
पहाड़ नही होती
पर लाद लेती है पहाड़
पीठ के भी मुह नही होता
पहाड़ की तरह होती है एक…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 13, 2015 at 12:24pm — 9 Comments
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