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ग़ज़ल -- शरबती आंखों से अब पीना पिलाना फिर कहाँ

2122 2122 2122 212
वो तेरा छत पर बुलाकर रूठ जाना फिर कहाँ ।
वस्ल के एहसास पर नज़रें चुराना फिर कहाँ ।।

कुछ ग़ज़ल में थी कशिश कुछ आपकी आवाज थी ।
पूछता ही रह गया अगला तराना फिर कहाँ ।।

आरजू के दरमियाँ घायल न हो जाये हया ।
अब हया के वास्ते पर्दा गिराना फिर कहाँ ।।

कातिलाना वार करती वो अदा भूली नहीं ।
शह्र में चर्चा बहुत थी अब निशाना फिर कहाँ ।।

तोड़ते वो आइनों को बारहा इस फिक्र में ।
लुट गया है हुस्न का इतना खज़ाना फिर कहाँ ।।

था बहुत खामोश मैं जज़्बात भी खामोश थे ।
पढ़ लिया उसने मेरे दिल का फ़साना फिर कहाँ ।।

खो गए थे इस तरह हम भी किसी आगोश में ।
याद आया वो ज़माना पर ठिकाना फिर कहाँ ।।

उम्र की दहलीज पर यूँ ही बिखरना था मुझे ।
वो लड़कपन ,वो जवानी, दिन पुराना फिर कहाँ ।।

ढल चुकी हैं शोखियाँ अब ढल चुके अंदाज भी ।
अब हवाओं में दुपट्टे का उड़ाना फिर कहाँ ।।

हुस्न की जागीर पर रुतबा था उसका बेमिशाल।
झुर्रियों की कैद में अब भाव खाना फिर कहाँ ।।

मैकदों के पास जब ग़ुज़रा तो ये आया खयाल ।
सरबती आंखों से अब पीना पिलाना फिर कहाँ ।।

नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 28, 2017 at 6:30pm

वाह सुंदर ग़ज़ल कही है आपने आदरणीय , हार्दिक बधाई |

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 28, 2017 at 11:47am
वाह वाह..खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय..

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