कौन भरेगा पेट
छोड़ा गाँव आज बुधिया ने,
बिस्तर लिया लपेट
उपजायेगा कौन अन्न अब,
कौन भरेगा पेट
गायब हैं घर में खिड़की अब,
दरवाजों की चलती है
आज कमी आँगन की हमको,
बहुत यहाँ पर खलती है
लैपटॉप पर खोल रहे हैं,
अब विंडो बिल गेट
खेतों में सडकें घुस आयीं,
जंगल में महलों का शासन
पानी सूख गया झरनों का,
पशु पक्षी कर गए पलायन
नालों ने मिलकर कर डाला,
नदियों का आखेट
बैठ धरा पर हमने लिक्खी,
बस चाँद गगन की सुन्दरता
वसुधा के सीने पर निश दिन,
करते रहे सदा बर्बरता
तपती रही धरा, मंगल पर,
पहुँच गया रॉकेट
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया पाकर मुग्ध हूँ आदरणीय गिरिराज भंडारी जी , सादर नमन, इसी तरह स्नेह बनाये रखें
आदरनीय बसंत भाई , आधुनिकता से पैदा हुई विनाशक परिस्थिति को आपके बहुत अच्छे से बान्धा है गीत मे .. बधाइयाँ ।
ह्रदय से आभार आदरणीय श्री laxman dhami जी आपका, इसी तरह स्नेह बनाये रखें, सादर
ह्रदय से आभार आदरणीय Samar kabeer जी आपका, यूँ ही स्नेह बनाये रखें, सादर
आ. भाई बसंत जी सुंदर गीत हुआ हार्दिक बधाई स्वीकारें
जी आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी ध्यानाकर्षण हेतु ह्रदय से आभार, परिमार्जन का प्रयास करता हूँ , इसी तरह मार्गदर्शन करते रहें सादर
हृदय से आभार आदरणीय Mohammed Arif जी आपका, आपकी मनभावन प्रतिक्रिया से उत्साहित हूँ. मार्गदर्शन की सदैव अपेक्षा है मंच से
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