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ग़ज़ल: उसको ये समझाना है

(बह्र--22/22/22/2)
उसको ये समझाना है ,
इक दिन सबको जाना है ।

.
हँस के रोकर कैसे भी ,
जीवन क़र्ज़ चुकाना है ।

.

देखो, भटका फिरता वो ,
वापस घर तो आना है ।

.

अच्छी सच्ची राहें हैं
सबको ये बतलाना है ।

.

उसके संगी-साथी को ,
मिलकर हाथ बढ़ाना है ।

.

आशा की किरणों वाला ,
फिर से दीप जलाना है ।

.
मौलिक एवं आप्रकाशित ।

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on May 7, 2017 at 9:34am

सहज सरल शानदार अभिव्यक्ति 

Comment by Mohammed Arif on May 4, 2017 at 11:37pm
आदरणीय महेंद्र कुमार जी आदाब, ग़ज़ल की सराहना और हौसला अफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया । अपका सुझाव बेहतर है । मुझे स्वीकार है ।
Comment by Mahendra Kumar on May 4, 2017 at 8:21pm

आ० मोहम्मद आरिफ जी, छोटी बह्र में बहुत बढ़िया ग़ज़ल प्रस्तुत की है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए

//हँस के रोकर कैसे भी// क्या इस मिसरे को "हँस के रो के" या "हँस कर रो कर" किया जा सकता है? देख लीजिएगा। सादर। 

Comment by Mohammed Arif on May 3, 2017 at 5:57pm
बहुत-बहुत आभार और शुक्रिया आदरणीय हेमंत कुमार जी ।
Comment by Hemant kumar on May 3, 2017 at 2:26pm
आदरणीय आरिफ सर इस लाजवाब ग़ज़ल के लिए बधाईयाँ कुबूल करें।
सादर...
Comment by Mohammed Arif on May 3, 2017 at 1:30pm
हौसला अफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय रवि शुक्ला साहब ।
Comment by Ravi Shukla on May 3, 2017 at 11:20am

आदरणीय मोहम्‍म्‍द आरिफ साहब गजल पर आपको प्रयास करता देख का खुशी हुई बहुत बहुत मुबारक बाद इसके लिये

Comment by Mohammed Arif on May 1, 2017 at 11:04pm
बहुत-बहुत आभार आदरणीय नीलेश "नूर" साहब । लेखन सार्थक हुआ ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2017 at 9:23pm

बहुत खूब आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब.... ग़ज़ल के लिये बधाई  

Comment by Mohammed Arif on May 1, 2017 at 8:24pm
आदरणीय सुशील सरना जी ग़ज़ल पर अपनी प्रतिक्रिया देने और हौसला अफज़ाई का बहुत-बहुत शुक्रिया ।

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