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जेब में सहमा हुआ इतवार है (ग़ज़ल 'राज ')

२१२२ २१२२ २१२

मजहबों के बीच जो दीवार है

डालती उस नींव को सरकार है

हाथ में जिसके किताबें चाहिए

आज उसके हाथ में हथियार है

जिन्दगी इक बार मिलती है यहाँ

मर रहा इंसान सौ सौ बार है

ख्वाहिशें बच्चों की पूरी क्या करें

जेब में सहमा हुआ इतवार है

पढ़ नहीं सकता यहाँ इक हर्फ़ जो

बेचता सड़कों पे वो अखबार है

राम रहिमन बिक रहे बाजार में

फल रहा बस धर्म का व्यापार है

नारियाँ महफूज़ बोलो हैं कहाँ

आज सड़कों पर लुटे संसार है

गुम कहाँ जाने हुए वो कहकहे

हर कोई दिखता यहाँ गमख्वार है

बादलों की देख के दादा गिरी

आज सावन भी हुआ बेजार है

दुश्मनी केवल यहाँ इंसान में

जानवर को जानवर से प्यार है

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Rajendra kumar dubey on July 11, 2016 at 6:52am
आदरणीय राजेश कुमारी जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई।
Comment by TEJ VEER SINGH on July 10, 2016 at 8:00pm

हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी! सुंदर गज़ल !

मजहबों के बीच जो दीवार है

डालती उस नींव को सरकार है

Comment by Rahila on July 10, 2016 at 7:09pm

"मजहबों के बीच जो दीवार है
डालती उस नींव को सरकार है
हाथ में जिसके किताबें चाहिए
आज उसके हाथ में हथियार है
जिन्दगी इक बार मिलती है यहाँ
मर रहा इंसान सौ सौ बार है
ख्वाहिशे बच्चों की पूरी क्या करें
जेब में सहमा हुआ इतवार है"वाह.. वाह..इन शेरों को तो कमाल का लिखा ।या ये कहू पूरी ग़ज़ल ही शानदार हुयी ।बहुत मुबारक आदरणीय दीदी!सादर

Comment by Samar kabeer on July 10, 2016 at 6:32pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा और खूबसूरत ग़ज़ल हुई है, शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
चौथे शैर में'ख्वाहिशे'को "ख्वाहिशें"कर लें ।
Comment by Mahendra Kumar on July 10, 2016 at 3:59pm
इस बेहतरीन प्रस्तुति के लिए दिली दाद क़ुबूल कीजिए आदरणीया राजेश कुमारी मैम, सादर!
Comment by मनोज अहसास on July 10, 2016 at 3:08pm
नमस्कार आदरणीया
इस खूबसूरत ग़ज़ल पर बहुत बहुत बधाई
सादर

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