परिणति पीड़ा
रिश्ते के हर कदम पर, हर चौराहे पर
हर पल
भटकते कदम पर भी
मेरे उस पल की सच्चाई थी तुम
जिस-जिस पल वहीं कहीं पास थी तुम
जीवन-यथार्थ की कठिन सच्चाइयों के बीच भी
खुश था बहुत, बहुत खुश था मैं
पर अजीब थी ज़िन्दगी वह तुम्हारे संग
स्नेह की ममतामयी छाओं के पीछे भी मुझमें
था कोई अमंगल भ्रम
भीतरी परतों की सतहों में हो जैसे
अन-चुकाये कर्ज़ का कंधों पर भार
तुमसे कह न सका पर इतनी खुशी से मुझको
अकसर लगता था डर ...
डर .... कि कब किसी ‘अविवेकी ’ सत्य के बहाने
कोई इर्ष्या-प्रसूत पल
पगलाये स्वार्थों में पली दानव-सी हँसी हँस दे
हमारे स्वर्णिम पलों की असलियत को अकस्मात
आश्रयहीन कर दे
मेरे कोमल शिशु-मन को आवेग में दबोच
भीषण दर्दीले प्रश्नों की तपती रेत में मुझको
छोड़ जाए अकेला असहाय अनुत्तरित
और आंतरिक बारूदी धुएँ से घिरा
बेचैन मन उस दम घोटते धुएँ में पुकारे तुमको
टूटे विश्वास की गहरी चोट लिए
--------
-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
(copyright)
Comment
आदरणीय बड़े भाई विजय जी , आत्मीय रिश्ते से अलगाव का भय आपकी रचना मे मुखरित है । बहुत सुन्दर , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
//भटक रहा रति सा विकल तुम हो चुकी अनंग I
जीवन बस कट्ता यहाँ इस पीड़ा के संग I//
आपके लिखे इन शब्दों की भावना मेरी रचना से सुगम सस्पंदन करती है।
हार्दिक आभार, आदरणीय गोपाल नारायन जी।
आदरणीय निकोर सर, आपने मन में उपजे अंतर्संबंधों के विलगने के भय को बड़ी सहजता से शाब्दिक किया है बिम्ब और प्रतीकों में मन राजस्थान का रेतीला बार्डर हो गया है. इस भावात्मक प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई, नमन
//मन में समाये रिश्तों के खोने का भय , बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है//
रचना की सराहना के लिए हृदयतल से आभार, आदरणीय विजय शंकर जी।
आदरणीय विजय निकोर सर , बहुत सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई , सादर।
भटक रहा रति सा विकल तुम हो चुकी अनंग I
जीवन बस कट्ता यहाँ इस पीड़ा के संग II ---------सादर निकोर जी
रचना की सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय मदन मोहन जी।
मन में समाये रिश्तों के खोने का भय , बहुत सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है, बधाई, आदरणीय, विजय निकोर जी , सादर।
superb
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