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सत्यांजलि


धन्य धन्य हे मात तू, धन्य हुआ यह पूत।
असहायों की मदद कर, यश-धन मिला अकूत।।1


क्षितिज द्वार पर नित्य ही, कुमकुम करे विचार।
स्वर्ण किरण के जाल में, क्यों फॅसता संसार।।2


उपकारी बन कर फलें, ज्यों दिनकर का तेज।
दिन भर तप कर दे रहा, रात्रि सुखद की सेज।।3


धर्म कार्य जन हित रहे, चींटी तक रख ध्यान।
मात्र द्वेष निज दम्भ रख, ज्ञानी भी शैतान।।4


जनहित मन्तर धर्म का, स्वार्थी पगे अधर्म।
सच्चा सेवक त्यागमय, करता है सतकर्म।।5


उपबन्धों में प्यार क्या? जीवन भी नित गर्क।
रहें बन्ध से मुक्त हम, यही सत्य का अर्क।।6


प्रस्तर प्यारा प्रेम का, ज्यों अस्तर लग कोट।
अन्तर्मन के भाव सम, ढके रहें सब चोट।।7


इतिहासों पर  हैं अड़े, खोज न पाये पंथ।
जन-जन चलनी हो गये, कण्ट धर्म के ग्रंथ।।8


नवल सूर्य नव सांझ भी, हर नवरात्रि अनूप।
धरती माता से कहें, मनुष गहन तम कूप।।9


भू कम्पन या जल प्रलय, आँधी हो तूफान।
मनुष कभी रखता नहीं, प्रकृति धैर्य का मान।।10


के.पी. सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित

 

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2015 at 8:57pm

आदरणीय  विजय भाई जी,  आपका हार्दिक आभार,  सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2015 at 8:56pm

आदरणीय  वामंनकर भाई जी,  आपका हार्दिक आभार,  मैं आपका आशय नहीं समझ सका....!  पंक्ति बिलकुल सही है----हाँ----आप "अकूत" के स्थान पर "प्रभूत"  भी  पढ सकते हैं! सादर

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 2, 2015 at 6:23am
सत्यांजलि, सुन्दर दोहावली, बधाई , इस प्रस्तुति पर आदरणीय केवल प्रसाद जी, सादर।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on May 1, 2015 at 8:37pm

सुन्दर दोहावली हुई है हार्दिक बधाई 

इन पंक्तियों पर पुनर्विचार निवेदित है -

असहायों की मदद कर, यश-धन मिला अकूत।।1

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 1, 2015 at 4:14pm

आ0  कबीर भाई जी,     आपका हार्दिक आभार.  सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 1, 2015 at 4:14pm

आ0 गोपाल सर जी,  सही पकडा आपने,  अभी सही करा देता हूँ.   आपका हार्दिक आभार.  सादर

Comment by Samar kabeer on May 1, 2015 at 3:36pm
जनाब केवल प्रसाद जी,आदाब, अच्छे दोहे कहे हैं आपने ,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 1, 2015 at 12:36pm

केवल जी

'इतिहासों पर अड़े हैं' को 'इतिहासों पर हैं अड़े ' कर लीजिये , सादर

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