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‘’घर का मामला'' (लघुकथा)

‘’आपने आज का अखबार पढ़ा अशफ़ाक मियां” कश्मीर में हालात और बेकाबू हो गये हैं!

“हाँ श्रीवास्तव जी पढ़ा!” इतना कहकर अशफ़ाक मियां चुप हो गये।

‘’आखिर मौकापरस्तों के चंगुल में जनता कैसे फँस जाती है ?" श्रीवास्तव जी फिर बोल पड़े।

कुछ देर चुप रहने के बाद अशफ़ाक मियां गहरी साँस लेते हुए बोले---

‘’घर का मामला जब अदालत में जाये तो यही अंजाम होता है’’!

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 30, 2015 at 4:46pm

मिश्रा  जी बहुत सुन्दर गंभीर विचारणीय। काश लोग इस सब से बचे होते । गागर में सागर और एक सच व्यक्त करती अच्छी लघु कथा
माह के सक्रिय  सदस्य के लिए भी बधाई
भ्रमर५

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 22, 2015 at 10:21pm

प्रिय  कृष्णा

आपकी यह लघु कथा  मेरी नजर से छूट  गयी थी . आज सौरभ जी से भेंट भी हुयी और काफी देर तक बात हुयी . वहीं आपकी इस कथा का जिक्र चला. लिहाजा मैं इस कथा पर हूँ . इस कथा के बारे में सौरभ जी ने जितना कह दिया है उसके बाद कुछ बचता नहीं i  मैं बस इतना ही कहूंगा  इतिहास की गल्तीको आपने  बड़ा सादगी से बयां किया i  यही इस कथा की ख़ूबसूरती है . सस्नेह .

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 22, 2015 at 10:17am

आदरणीय मिथिलेश सरजी ! आपकी टिप्पणी का इन्तजार था...आपका अनुमोदन पाकर रचनाकर्म सार्थक हुआ!आभार आदरणीय!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 22, 2015 at 10:13am

आदरणीय vijai shanker सरजी! रचना के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार!

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 22, 2015 at 10:10am

अहा! गुरुवर...आपका आशीर्वाद पाकर अभिभूत हूँ!...लघुकथा के मूल को उभारकर आ० आपने और मुखरित कर दिया है...मै इसी सोच में था के शायद लघुकथा के कथ्य को और स्पष्ट करने की आवश्यकता रह गयी,क्युकी मुझे टिप्पणियों में जिस उत्तर की आशा थी,वो मिल नही रही थी!!...पर आ० आपकी विस्तृत टिप्पणी ने मेरी शंका को दूर कर दिया!हार्दिक आभार और नमन!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on April 22, 2015 at 1:03am

कुछ देर चुप रहने के बाद अशफ़ाक मियां गहरी साँस लेते हुए बोले---
 ‘’घर का मामला जब अदालत में जाये तो यही अंजाम होता है’’!................  

अद्भुत समापन !

भाई कृष्ण मिश्रजी, आपकी इस लघुकथा को मैं अपनी अबतक पढ़ी पाँच सबसे अच्छी लघुकथाओं में पाता हूँ. हर तरह से समृद्ध यह लघुकथा सीधे दिल में उतर जाती है. स्वतंत्र भारत के इतिहास की सबसे बड़ी भूल को जिस सहजता से यह लघुकथा आम करती है इसका कोई ज़वाब नहीं है.

सही है, न यूएनओ में प्रथम प्रधानमंत्री इस समस्या को ले गये होते, न उन्होंने पेब्लिसाइट की बात की होती, न यह सामयिक बवाल कैंसर का रूप अख़्तियार कर भारतीयों के गले पड़ता. हर संवेदनशील भारतीय के हृदय के कचोटपन को स्वर देती इस लघुकथा का कथ्य-विस्तार स्वयं में इतिहास की दुखती रग़ के दर्द को साझा कर रहा है. भारत का हर सच्चा नागरिक अपनी विवशता पर झल्ला कर रह जाता है. भोले-भाले कश्मीरी युवाओं को भारत के ख़िलाफ़ उकसाया जाता है. हर रोज़ देश के जवानों की हेठी होती रहती है. तो दूसरी ओर सामान्यजन को यह पता ही नहीं चल पाता कि समस्या आख़िर है कहाँ. सामान्य जनता उंगली पड़ोसी देश की ओर करती रहती है.

शिल्प की कसौटी पर भी यह लघुकथा अत्यंत कसी हुई है और सफल रचना के तौर पर सामने आती है. कथानक को इतनी महीनी से बुना गया है कि लेखक की मानसिक परिपक्वता का भान सहज ही हो जाता है. श्रीवास्तवजी जहाँ आज के सामान्यजन का प्रतिनिधित्व करते हुए हैं तो, अशफ़ाक़ मियां जागरुक किन्तु किंकर्तव्यविमूढ़ नागरिक के रूप में अत्यंत सफल हैं.
कथा विन्यास में अभिव्यंजना का स्तर तो यह है कि इससे कविताई का अहसास हो रहा है.

लघुकथा के समस्त तकनीकि पक्षों पर खरी उतरती इस लघुकथा के लिए बार-बार बधाइयाँ और हृदय की अतल गहराइयों से शुभकामनाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2015 at 10:30pm

आदरणीय कृष्ण भाई जी बहुत गंभीर प्रस्तुति ... सफल लघुकथा 

हार्दिक बधाई 

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 21, 2015 at 12:58am
गंभीर प्रस्तुति, बधाई , प्रिय कृष्ण मिश्रा जी , सादर।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 20, 2015 at 9:54pm

आदरणीया राजेश कुमारी ज़ी! रचना पर आपकी सराहना पाकर धन्य हुआ,रचनाकर्म सार्थक हुआ!हृदयतल से आभार!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 20, 2015 at 9:37pm

बहुत गहन बात कही लघु कथा के माध्यम से ...ये घर के मामले भी घरवाले ही बाहर तक पंहुचाते हैं अपना देश तो सदा इसी कोशिश में है की घर का मामला घर में ही सुलझ जाए मगर गैरों (जो अपने देश में रहकर ही गैरों सा बर्ताव करते हैं )को  कैसे समझाएं?? बढ़िया लघु कथा कृष्ण जी हार्दिक बधाई .

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