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ग़ज़ल -- अंततः विदा पाई (मिथिलेश वामनकर)

212---1222---212---1222

 

झूठ भी नहीं कहते, सत्य भी नहीं कहते

दो नयन तुम्हारे पर, मौन भी नहीं रहते

 

प्रीत का कहो कैसे, आप सुख उठाएंगे

प्रेम वेदना में जब, रंच भी नहीं दहते

 

यश तनिक घटाता हैं, प्रेम की निकटता को 

वो नदी हुए जब से, नैन से नहीं बहते

 

जीव ने जरा तन से, अंततः विदा पाई

आप ही कहें कब तक, कष्ट हम भला सहते

 

दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिले समझो

इस अहं की टक्कर में, घर सदा मिले ढहते

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 12, 2015 at 9:15pm

दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिला समझो

इस अहं की टक्कर में, घर सदा मिले ढहते....बहुत सुंदर शे'र. दिली बधाई आदरणीय मिथिलेश जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 12, 2015 at 5:18pm
दर्प से कुटुम्बों को, दंश ही मिला समझो
इस अहं की टक्कर में, घर सदा मिले ढहते
बहुत अच्छी प्रस्तुति, बधाई, प्रिय मिथिलेश जी, सादर।
Comment by Samar kabeer on April 12, 2015 at 2:44pm
जनाब मिथिलेश वामनकर जी,आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है भाई,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं |

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on April 12, 2015 at 12:51pm

क्या बात है वाह बहुत सुंदर मुरस्सा ग़ज़ल हुई है बहुत बहुत बधाई आपको

कृपया ध्यान दे...

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