22—22—22—---22—22--22 |
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मीलों पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ |
हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ |
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दीवारों पर अरमानों के ख़्वाब टंगे हैं |
छत से लटके पंखे सा मैं घूम रहा हूँ |
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अब तो सिग्नल पैहम खूनी ख़बरें लाए |
टीवी कब बच्चों के जैसे देख सका हूँ |
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एक बिकाऊ अफसर ने ईमान सिखाया |
ए.सी. में भी बैठे - बैठे खूब जला हूँ |
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रोज़ ख़यालों, लफ़्ज़ों से दीवान गढ़े हैं |
चार किताबों की खातिर मैं रैक बना हूँ |
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बदले तेरे ख़त, बदला है कासिद मेरा |
अब तेरी ई-मेलों का रस्ता तकता हूँ |
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ताल,नदी,पोखर में अब विश्वास कहाँ है |
बोतल वाले पानी से ही तृप्त हुआ हूँ |
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आज जरुरत पूरी करते - करते घर की |
टेबल के नीचे वाली फिर मौत मरा हूँ |
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राय जरा दी रचना पर तो वें कहते है- |
“सोशल साइट के पन्नों पर खूब चला हूँ” |
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यादों की गठरी का अक्सर लम्हा बनकर |
तेरह मेगापिक्सल में मैं कैद हुआ हूँ |
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मत देखों, पकवानों से तर मेरी थाली |
मुट्ठी भर चावल को भी बरसों तरसा हूँ |
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रूह किसी अखबारी कागज़ से लिपटी है |
ख़बरों जैसी शक्ल बना के रोज़ छपा हूँ |
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Comment
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर अशआर के मूल भाव को अभिव्यक्त करती आपकी सराहनापूर्ण, सकरात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक आभार, नमन
क्या मिथिलेश सर! हम जैसे नवोदित रचनाकारों के लिखने के लिए कुछ शेष छोड़ भी दीजिये! गजब ढा रहे है आपके शेर तो!..
दीवारों पर अरमानों के ख़्वाब टंगे हैं
छत से लटके पंखे सा मैं घूम रहा हूँ लाजव़ाब!!
अब तो सिग्नल पैहम खूनी ख़बरें लाए |
टीवी कब बच्चों के जैसे देख सका हूँ अहा ! क्या बात! क्या बात! बदले तेरे ख़त, बदला है कासिद मेरा अब तेरी ई-मेलों का रस्ता तकता हूँ वाह! वाह! आधुनिक गजलों का युग आपके जिक्र के बिना अधुरा रहेगा आदरणीय! |
आज जरुरत पूरी करते - करते घर की टेबल के नीचे वाली फिर मौत मरा हूँ जबरदस्त! राय जरा दी रचना पर तो वें कहते है- “सोशल साइट के पन्नों पर खूब चला हूँ” हा हा हा! आपकी हाजिर जवाबी भी कमाल है सर! यादों की गठरी का अक्सर लम्हा बनकर तेरह मेगापिक्सल में मैं कैद हुआ हूँ सुंदर! मत देखों, पकवानों से तर मेरी थाली मुट्ठी भर चावल को भी बरसों तरसा हूँ दिली दाद! इस शेर पे! रूह किसी अखबारी कागज़ से छाई है ख़बरों जैसी शक्ल बना के रोज़ छपा हूँ बेहद उम्दा!! |
आ० मिथिलेश जी
इस नए ज़माने को अपने में समेटती इस गजल के लिए आपको मुबारकवाद . बहुत बढ़िया . सादर .
आदरणीय हरिप्रकाश भाई जी ग़ज़ल आपको पसंद आई, जानकार मन संतुष्ट हुआ, स्नेह और सराहना के लिए हार्दिक आभार
एक बिकाऊ अफसर ने ईमान सिखाया |
ए.सी. में भी बैठे - बैठे खूब जला हूँ |
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रोज़ ख़यालों, लफ़्ज़ों से दीवान गढ़े हैं |
चार किताबों की खातिर मैं रैक बना हूँ.......बहुत ही शानदार रचना है , बहुत ही उर्वर , वाह , बहुत बहुत बधाई आदरणीय मिथिलेश भाई ! सादर |
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