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कोकून :हरि प्रकाश दुबे

अपने कोकून को

तोड़ दिया है मैंने अब

जिसमे कैद था, मैं एक वक़्त से

और समेट लिया था अपने आप को

इस काराग्रह में ,एक बंदी की तरह !

निकल आया हूँ बाहर , उड़ने की चाह लिए

अब बस कुछ ही दिनों में, पंख भी निकल आयेंगे

उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग

मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए

और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

“मौलिक व अप्रकाशित “

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 12, 2015 at 10:03pm

एक नए प्रतिक के साथ कविता बढ़ती है, अच्छी रचना हुई है बहुत बहुत बधाई आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी.

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 12, 2015 at 9:06pm
गंभीर एवं मार्मिक अभिव्यक्ति, बधाई, आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी , सादर।
Comment by Shyam Mathpal on March 12, 2015 at 8:24pm

Aadarniya Hari Prakash Dubey Ji,

Badi Marmik rachna. Apne shauk ke liye kisi ki aajadi wa jidangi se khelte hain. Aapko tahe dil se badhai.

Comment by maharshi tripathi on March 12, 2015 at 8:08pm

बहुत सुंदर अभिव्यक्ति आ.Hari Prakash Dubey जी आपको ढेरो बधाई |

Comment by Neeraj Neer on March 12, 2015 at 7:59pm

बहुत सुंदर ॥ 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 12, 2015 at 7:03pm

अपने त्याग और  बलिदान से सब कुछ दे जाना, आखिर उसे भी अधिकार है अपने जीवन को कैसे जिए.. सुंदर प्रस्तुति आदरणीय हरिप्रकाश जी. हार्दिक बधाई

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