दशाश्वमेध घाट पर
कुछ उत्तर आधुनिक भारतीय
कर रहे थे स्नान
शैम्पू और विदेशी साबुन के साथ
दूर –दूर तक फैलकर झाग
धो रहा था अमृत का मैल
गंगा ने उझक कर देखा
फिर झुका लिया अपना माथ
साक्षी तो तुम भी हो
काशी विश्वनाथ !
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
आ० हरि प्रकाश जी
आपका अनुगृहीत हूँ i सादर i
आ० प्रभा त्रिपाठीजी
आपका हृदय से आभार i
राम तेरी गंगा मैली हो गई |सुंदर व्यंग्य है आपकी कविता में आदरणीय |गंगा की स्थिति पर सार्थक चिंतन |
बहुत ही सुंदर और गम्भीर कटाक्ष, बिलकुल लघुकथा हो जैसे.. :-)) हार्दिक बधाई स्वीकारें आदरणीय डा.गोपाल जी
अच्छी प्रस्तुति आदरणीय ,बधाई |
धो रहा था अमृत का मैल ....सरल शब्दों में गहरी बात ....बधाई
साक्षी तो तुम भी हो
काशी विश्वनाथ !
आदरणीय गोपल्नारयं सर ,धीर गंभीर और सटीक रचना है ,मन मुग्ध हो गया है | उत्तर आधुनिकता ,पुरातन अमृत का मैल छुड़ाने का दंभ भरती है ,और काशी विश्वनाथ केवल साक्षी भर रहे,गंगा अपना माथ न झुकाए तो क्या करे |बधाई और सादर अभिनन्दन |
//दूर –दूर तक फैलकर झाग
धो रहा था अमृत का मैल//
बहुत ही सुन्दर भाव, बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी.
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