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फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में (नवगीत) // --सौरभ

फिर-फिर पुलकें उम्मीदों में
कुम्हलाये-से दिन !

सूरज अनमन अगर पड़ा था..
जानो--
दिन कैसे तारी थे..
फिर से मौसम खुला-खुला है..
चलो, गये जो दिन भारी थे..


सजी धरा
भर किरन माँग में
धूल नहीं किन-किन !

नुक्कड़ पर फिर
खुले आम

इक ’गली’

’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी

चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन.. .

हालत क्या थी
कठुआए थे
मरुआया तन माघ-पूसता  
कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !

वहीं पसर अब उस कुतिया ने
चैन लिये हैं बिन... .

पंचांगों में उत्तर ढूँढें,
किन्तु, पता क्या,
कहाँ लिखा क्या ?
’हर-हर गंगे’ के नारों में
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?


फिरभी तिल-गुड़ के छूने को
सिक्कों में मत गिन.
*************
--सौरभ
(मौलिक और अप्रकाशित)


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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 19, 2015 at 5:25pm

देश काल के अनूठे बिम्बों से सजा यह नवगीत बहुत सुन्दर है। दिली दाद कुबूल कीजिए

Comment by Chhaya Shukla on January 13, 2015 at 1:28pm

आदरणीय सौरभ जी,
आपकी नवगीत कुछ इन दृश्यों को समेटे हुए है -
शीत ऋतु के सूक्ष्म कलापों की सज धज इस नवगीत में दिख रही है
चाय की अडी पर लोगों का जमघट चाय के साथ ताजा तरीन बातों पर बहस ;
समीप में बैठा पिल्ला शीत की शिकायत कर रहा है और ठंठी में नहाते श्रद्धालु तिल छूकर दान करते हुए पाप से मुक्त होते लोग ; माघ महीना और मकर संक्रांति को जीता नवगीत अति मनोरम अपना सा लगा इस गीत की ढेरों बधाई स्वीकारें आदरणीय ! सादर

Comment by harivallabh sharma on January 10, 2015 at 10:38pm

वर्तमान मौसम की छुपछायी ..सूरज की लुका-छिपी, ठण्ड में पिल्लों की कुन मून..और मकर संक्राति का प्रतिबिम्ब..साक्षात् होते परिद्रश्य में गठा हुआ श्रेष्ठ नवगीत..बधाई आदरणीय...सभी बंद श्रेष्ठ..सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 9, 2015 at 5:16pm

आदरनीय सौरभ भाई , कोहरे भरे ठंडे दिनों से ले कर तिल गुड़ ( संक्रांति ) तक का बहुत खूबसूरत दृश्य उकेरा है आपने ।

नुक्कड़ पर फिर
खुले आम

इक ’गली’

’चौक’ से मिलने आयी
अखबारों की बहस बहक कर
खिड़की-पर्दे सिलने आयी

चाय सुड़कती अदरक वाली
चर्चा हुई कठिन.. .     क़्या बात है , आदरणीय ! बहुत बधाई स्वीकार करें ।

Comment by दिनेश कुमार on January 9, 2015 at 4:37pm
मैंने जिन्दगी में बहुत कम ही गीत पढ़े हैं। वाकई इस गीत को पढ़ने पर लगा कि गलत धारणा पाले हुआ था मैं गीतों के प्रति। क्या ही गजब ये गीत हुआ है! वाह वाह। इससे ज्यादा क्या कहूं मैं ..!!
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 9, 2015 at 11:32am

आदरणीयभाई सौरभ जी, रचना पर गुणी जन बहुत कुछ कह चुके . बस इतना ही कहूँगा की मन में गहरे बस गई है यह रचना . कोटि कोटि बधाई


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 8, 2015 at 9:48pm

आय हाय हाय, क्या कहने, शब्द-शब्द संग-संग बहता रहा, हर हर गंगे कहता रहा, पिल्लों का कु कु, कुतिया का इन्हें और करीब दुबका लेना, ऊपर से पुआल और बोरे से ढक देना सब कुछ आँखों के सामने.

और सबसे खुबसूरत पक्ति .....

नुक्कड़ पर फिर 
खुले आम

इक ’गली’

’चौक’ से मिलने आयी 

ओय होय होय, अब तो सस्वर सुनने की तमन्ना है, आनंद आ गया. बहुत बहुत बधाई आदरणीय सौरभ भईया.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 8, 2015 at 8:16pm

आदरणीय सौरभ जी

ऋतु परिवर्तन की गंध लिए इस कविता में आपके शाब्दिक प्रयोग अनोखी मिठास भरते है - कठुआए, मरुआये , माघ पुसता  कविता को नयी धज देते है i  भारी दिन गए अब रश्मि सज्जित धरा ने शृंगार किया i


नुक्कड़ पर फिर खुले आम इक ’गली’ ’चौक’ से मिलने आयी----अद्भुत परिकल्पना ह

  

कुनमुन करते उन पिल्लों का
जीवन तक था प्राण चूसता !

वहीं पसर अब उस कुतिया ने
चैन लिये हैं बिन... .    ------------------------- प्रेमचंद को 'पूस की रात ' की याद दिलाती

’हर-हर गंगे’ के नारों में  सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?

फिरभी तिल-गुड़ के छूने को सिक्कों में मत गिन.----------- आज ही सकठ -पूजा है

 

आदरणीय आपके गीत संग्रहणीय है i सादर i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 8, 2015 at 7:54pm

आदरणीय सौरभ सर , //नुक्कड़ पर फिर/खुले आम/इक ’गली’/’चौक’ से मिलने आयी// गली और चौक पर मानवीय चेष्टाओं का निरूपण .... ऐन्थ्रोपोमॉर्फ़िज़्म'  पर  बेहद उत्कृष्ट रचना और हमारे सीखने को श्रेष्ट उदहारण ...... सम्पूर्ण रचना में मानवीकरण अलंकर का सुन्दर प्रयोग......भाषा चित्रात्मक सजीव तथा  प्रवाहपूर्ण साथ ही वर्णन में नवीनता और ताजगी ...... जैसे //चाय सुड़कती अदरक वाली /चर्चा हुई कठिन.. .// उसी प्रकार फिर-फिर, खुला-खुला, किन-किन, कुनमुन,  हर-हर गंगे में पुनरूक्ति प्रकाश अलंकार का बेहतरीन प्रयोग..... | खिड़की-पर्दे,  माघ-पूसता,  तिल-गुड़  बहस बहक कर आदि शब्द-युग्मों से नवगीत में गति आ गई है | कुल मिलाकर एक सुन्दर और जीवंत नवगीत |... भाव पक्ष तो उत्कृष्ट है ही.... अपनी समझ से इतना ही समझ पाया हूँ रचना को | सुन्दर नवगीत के लिए आपको हार्दिक बधाई  |सादर नमन |

Comment by Hari Prakash Dubey on January 8, 2015 at 7:47pm

’हर-हर गंगे’ के नारों में 
सबकुछ नीचे बहा दिखा क्या ?... सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई आदरणीय सौरभ पाण्डेय सर !

 

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