पूर्वगाथा
हादसा नया हो न हो
पुरानी चोट से जगह-जगह
दर्द नया
लहर दर्द की, अब दुखी
तब दुखी
कब रुकी
बहती चली गई
मेघ यादों के आँखों में घने
बरसे, बरसे अनमने
तालाब से नदी, सागर
रातों सियाह महासागर बने
कोई नि:सीम अखण्ड विश्वास
तारिकाएँ नभ में कितनी टूटीं
टूटी नहीं किसी के आने की आस
स्नेह की किरणों की उष्मा में बादल
बने फिर घने, फिर बरसे
भीतर सागर समतल
स्मृतिओं से गुँधते-बिंधते
सैकड़ों दिये किसी के नाम के
दर्द के पट्टे पर
हाथ मेरा फिर से जला
हादसा बचपन का, कल का नया लगा।
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--- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
निकोर जी
आप तो स्वतः पीड़ा की प्रतिमूर्ति हैं i समय का मरहम नाकाफी है आप-के लिये i दर्दे दिल अब मेरे साथ ही जायेगा i भगवान् आपका हौसला बढाये i सादर i
आदरणीय विजय सर ..मन भावन ह्रदय स्पर्शी इस रचना के लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय विजय निकोर सर बहुत सुन्दर रचना हुई है। हृदय को छूने वाली इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई आपको
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