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जब बहाने थे नये तो दिल को भी उम्मीद थी - गजल ( लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’ )

2122    2122    2122    212

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दिल  हमारा  तो  नहीं था आशियाने के लिए
फिर कहाँ से आ गये दुख घर बसाने के लिए
***
हम ने सोचा  था कि होंगी महफिलों में रंगतें
पर  मिली  वो  ही  उदासी जी दुखाने के लिए
***
था सुना हमने बुजुर्गो से  कि कातिल नफरतें
प्यार  भी  जरिया  बना पर खूँ बहाने के लिए
***
जब सभल जाएगा तुझको पीर देगा अनगिनत
हो  रहा   बेचैन  तू  भी   किस  जमाने के लिए
***
जब बहाने थे नये तो दिल को भी उम्मीद थी
है  बहाना  शेष  ही  क्या अब बुलाने के लिए
***
व्यर्थ  है  रोना, जुदाई  भाग्य में जब है लिखी
इक मिलन की रात तो है हँस बिताने के लिए
***
( रचना 12 सितम्बर 2014 )

मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
गजल

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 20, 2014 at 1:30pm

धामी जी

अति उत्तम i

जब सभल जाएगा तुझको पीर देगा अनगिनत
हो  रहा   बेचैन  तू  भी   किस  जमाने के लिए

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:53am


आदरणीय भाई जितेंद्र जी , आपकी उपस्थिति से गजल का जो मान बढ़ा है उसके लिए हार्दिक आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:53am


आदरणीय भाई भुवन जी, गजल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद । जहां तक गहरी बात कहने का सवाल है आप सभी की संगत का असर है जो कभी कभी गहरी बात दिल में आ जाती है । स्नेह बनाए रखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:52am


आदरणीय भाई नरेंद्र जी, गजल की प्रशंसा के लिए आभार ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:52am


आदरणीय भाई रामअवध जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:52am


आदरणीय भाई विजय निकोर जी, आपकी उपस्थिति से गजल का जो मान बढ़ा है उसके लिए आभार । भविष्य में भी आपका स्नेहाशीष मिलता रहे यही कामना है । शुभ .... शुभ....

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:52am


आदरणीय भाई खुर्शीद जी, गजल की प्रशंसा और स्नेह के लिए आभार । उपस्थिति बनाए रखें ।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 20, 2014 at 10:51am

आदरणीय भाई गिरिराज जी , गजल का अनुमोदन कर उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 20, 2014 at 8:54am

व्यर्थ  है  रोना, जुदाई  भाग्य में जब है लिखी
इक मिलन की रात तो है हँस बिताने के लिए......बहुत खुबसूरत. दिली बधाई आपको आदरणीय लक्ष्मण जी

Comment by भुवन निस्तेज on September 19, 2014 at 10:44pm

व्यर्थ  है  रोना, जुदाई  भाग्य में जब है लिखी
इक मिलन की रात तो है हँस बिताने के लिए

बड़ी गहरी बात कह जाते हो आदरणीय....बधाई स्वीकार करें...

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