मँच पर बुला बुला कर उन सभी बुज़ुर्गों को सम्मानित किया जा रहा था जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था. उनमें से किसी ने जेल काटी थी, किसी ने अंग्रेज़ों की लाठियां खाईं थीं, कोई सत्याग्रह में शामिल था तो कोई भारत छोडो आंदोलन में. उन सभी की देशभक्ति के कसीदे मँच पर पढ़े जा रहे थे. हाथ में तिरँगा पकडे एक बूढा यह सब देख देख मुस्कुराये जा रहा था. जब भी किसी को सम्मान देने के लिए बुलाया जाता तो वह झट से दूसरों को बताता कि यह उसके गाँव का है, या उसका दोस्त है या उसका जानकार है. पास ही खड़े एक व्यक्ति ने मज़ाक में कहा:
"बाबा तुम्हारे जानने वालों ने देश के लिए इतनी कुर्बानियां दीं, तुम ने भी देश के लिए कुछ किया ?"
"कुछ ख़ास नहीं कर पाया बेटा, बस पैंसठ और इकहत्तर की जंग में दो बेटों को कुर्बान किया है देश के लिए."
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
पुरस्कार और सम्मान पदक बांटने में सरकार हो या सामाजिक संस्थान, इस कहावत का अक्षरतः पालन हो रहा है -
"अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपनों ही दो दे" | उसमे भी मंच पर सत्तासीनों का फोटों सहित मीडिया में प्रचार का
माध्यम ज्यादा दिक्खता है | सन पैसठ और इकहत्तर की लड़ाई में कुर्बान बेटों के बूढ़े बापू की मार्मिक वेदना
इस कहानी का चरमोत्कर्ष है | बहुत बहुत बधाई आदरणीय श्री योगराज भाई जी | सादर
सच्चे देश भक्त ढिंढोरा नहीं पीटते , न उन्हें तमगों की ज़रूरत होती है , बस देश के लिए करने का जज्बा होता है , और कर गुज़रते हैं | बहुत सुन्दर लघुकथा ,
आदरणीय योगराज भाई ,आपको दिली बधाइयाँ |
आदरणीय योगराजभाईसाहब, आपकी लघुकथा ने उन विन्दुओं को छुआ है जिनके प्रति भारतीय जन-मानस तो संवेदनशील है परन्तु, सरकारी तंत्र पूर्णतया असंवेदनशील है. इसके कई कारण हैं.
देश में परतंत्रता, विपन्नता, विसंगतियों आदि के दौर से निकालने की चली मुहीम में किसी व्यक्ति, समुदाय या क्षेत्र मात्र का योगदान नहीं था, न है. लेकिन एक तबका ऐसा उठा जिसने एक व्यक्ति, एक परिवार, एक समुदाय को ही सारा श्रेय देने का ढोल पीटना शुरु किया.
इस सबका आफ़्टर-इफ़ेक्ट क्या हुआ है, यह आपकी लघुकथा कह रही है.
गलत लोग हर तरह की होड़ में शामिल हो गये. जिसने राष्ट्र को अपना सर्वस्व माना उन्हें या तो हाशिये पर रखने का कुचक्र रचा गया या उनकी राष्ट्रीय भावनाओं की खिल्ली उड़ायी गयी. या, वे स्वयं इस हड़बोंग से क्षुब्ध हो कर हाशिये पर चले गये. ऐसे ही निर्लिप्त राष्ट्रप्रेमियों का प्रतिनिधित्व आपकी कथा का पिता करता है जिसने अपने दो बेटों की कुर्बानियाँ दी और बिना किसी अपेक्षा के इस समारोह की ’सफलता’ पर भी प्रसन्न हुआ तालियाँ बजा रहा है.
ओह ! इस उत्फुल्ल निर्लिप्तता पर आँखें भर आयी हैं, आदरणीय !
मैं अपने जीवन में व्यक्तिगत तौर पर बीसियों लोगो को जानता हूँ, भाईजी, जिन्होंने ऐसी सरकारी कवायद का खूब जायज-नाजायज लाभ लिया है, तो व्यक्तिगत तौर पर ऐसे लोगों को भी जानता हूँ, जिन्हों ने अपने जीवन काल में सरकारी ताम्रपत्र तक को स्वीकार नहीं किया, बल्कि नैनीताल या ऐसी ही जगहों पर उनके नाम आवण्टित बड़े भूभाग को यह कह कर छोड़ दिया कि उनका समर्पण देश के प्रति था. ऐसे महामानवों की भावना क्या रही होगी, आदरणीय ?
एक विशिष्ट सोच पर आपकी सार्थक कलम चली है. आदरणीय, हृदय से आभार इस लघुकथा के लिए !
सादर
"कुछ ख़ास नहीं कर पाया बेटा, बस पैंसठ और इकहत्तर की जंग में दो बेटों को कुर्बान किया है देश के लिए."////////////इसे कहते है सच्ची देश भक्ति
वाह आदरणीय योगराज जी बहुत ही ज़ोरदार लघुकथा ........ हार्दिक बधाई आपको सादर
बहुत सुन्दर लघुकथा , बहुत बहुत बधाई..
आदरणीय योगराज भाईजी
सच तो ये है कि देश के लिए जान देने वाला भी, भारत देश में शहीद नहीं कहलाता है !!!
और ये भी सच है कि सम्मान पुरस्कार वही पाता है, जो तिकड़म और जुगाड़ लगाता है !!!!!
हृदय स्पर्शी लघु कथा की हार्दिक बधाई
आदरणीय योगराज जी
सम्मान उन्हें मिला जो जेल गए ,जिन्होंने लाठी खाई i पर जिन्होंने दो बेटे कुर्बान किये -------- उनको इस कथा के रूप में आपने सम्मानित किया i आपको सहस्त्र शुभ कामनायें i
सादर नमस्ते भैया ......बहुत खुबसुरत कहानी लिखी आपने
अपने दो जवान बेटों को खोकर भी इतना जोश. शायद! ऐसे महापुरुषों के दिए गए बलिदान से ही हम सब आजादी का आनंद उठा रहे है.
बहुत-२ बधाई आपको आदरणीय योगराज जी
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