2122 2122 2
कुछ परायी कुछ हमारी सी
ज़िन्दगी क्यूँ है उधारी सी
अश्क़ों की नदियाँ थमीं तो हैं
सिसकियाँ अब तक हैं जारी सी
लोग कहते हैं कि जी ली, पर
ज़िन्दगी लगती गुजारी सी
बदलियों के सामने क्यों धूप
हो रही है इक भिखारी सी
आसमाँ रोया बहुत था कल
आज सूरत है निखारी सी
हर तरफ़ घायल हुआ हूँ मै
बात शायद थी दुधारी सी
बेक़रारी दिल में तारी है
इक ग़ज़ल हो जाये प्यारी सी
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय जितेन्द्र भाई , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।
आदरणीय विजय भाई , हौसला अफज़ाई के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥
आदरणीया कल्पना जी, आपकी सराहना के लिये आपका तहे दिल से आभार ॥
आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपके स्नेह सिक्त आशीषों के लिये आपका हृदय से आभारी हूँ ॥
कुछ परायी कुछ हमारी सी
ज़िन्दगी क्यूँ है उधारी सी..........वाह! बहुत लाजवाब मतला
लोग कहते हैं कि जी ली, पर
ज़िन्दगी लगती गुजारी सी............बहुत उम्दा शेर हुआ
नमन सर जी, बहुत ही कमाल की गजल कही आपने. तहे दिल से बधाई आपको
वाह,वाह! निहायत खूबसूरत गजल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय गिरिराज जी
सुभान अल्लाह i क्या उम्दा गजल है i आख़िरी शेर ने तो जान ही निकाल ली i मै मित्र आपका एहतराम करता हूँ i
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