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ग़ज़ल- रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया
रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया

पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया

कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी
पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया

आज मुझको काम से इक रोज की फुर्सत मिली
आज दिनभर लाडला बस मुस्कुराता रह गया

धन की देवी आपके घर क्यों कभी रुकती नहीं
चौक पर बैठा नजूमी ये बताता रह गया

आँख का हर प्रश्न आंसू की सतह में बह गया
और बेटा देश से बाहर कमाता रह गया.
- अनुराग 'अनुभव' ( मौलिक)

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Comment by Anurag Anubhav on March 24, 2014 at 8:36am
शुक्रिया शिज्जु शकूर जी, गुमनाम पिथौरागढ़ी जी, राम अवध विश्वकर्मा जी, ओम प्रकाश क्षत्रिय जी, केवल प्रसाद जी, भुवन निस्तेज जी, जीतेन्द्र 'गीत' जी, विजय मिश्र जी, लक्ष्मन धामी जी, गिरिराज भंडारी जी, शशि पुरवर जी, धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी, अजय अज्ञात जी, वीनस केसरी जी, सौरभ पाण्डेय जी और अन्य सभी अग्रज एवं गुरुजनों का धन्यवाद... आभार... अपना आशीर्वाद बनाये रखें....
Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 1:25am

अच्छी ग़ज़ल कही है अनुराग
यहाँ लोगों ने काफी कुछ कह दिया है .. उनके कहे पर गौर करना जरूरी है

Comment by Ajay Agyat on March 23, 2014 at 3:04pm

bahut umda

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 23, 2014 at 2:32pm

अनुराग जी अगर काफिया ठीक कर लें तो अच्छी ग़ज़ल हो जायेगी. बधाई स्वीकार करें 

Comment by shashi purwar on March 22, 2014 at 9:53pm

वाह वाह बहुत सुन्दर गजल है शभी शेर एक एक बढ़कर एक , बहुत गहन बात कही है आपने आदरणीय हार्दिक बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 20, 2014 at 8:03pm

आ. अनुराग भाई , बहुत खूबसूरत गज़ल कही है , आपको बधाइयाँ ॥ आ. केवल भाई जी की बात से मै सहमत हूँ , काफिया मे गडबड़ी लग रही है भाई जी फिर से देख लीजियेगा  ॥

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 7:20am

भाई अनुराग जी , हर एक शे'र के लिए कोटि कोटि दाद कबूल करें

Comment by विजय मिश्र on March 19, 2014 at 2:44pm
अनुरागजी ,बेशक एक कसक भरी आज के शहर की रुखी बसर को आपने असआरों का शक्ल दिया है ,बहुत उभर कर आया भी है |
"रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया
रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया
पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया |" कितनी बारीकी से रखा है |बेहतरीन|शुक्रिया |
आखिरी मिसरे का 'सतह ' कहीं 'शकल' तो नहीं है ? ऐसी शंका है , कोई जिरह नहीं |
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 17, 2014 at 11:49pm

लाजवाब गजल कही आपने आदरणीय अनुराग जी, एक से बढ़कर एक शेर .दिली दाद कुबूल कीजिये

पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए
गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया

Comment by भुवन निस्तेज on March 16, 2014 at 11:02pm

अत्यन्त सुन्दर रचना....

आप के अल्फाज़ मेरी रूह में यों  छप गए

और मेरा दिल  गज़ल ये गुनगुनाता रह गया...

कृपया ध्यान दे...

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