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गजल - आप के चेहरे से डर दिखने लगा।

फाइलातुन  फाइलातुन  फाइलुन

.

धीरे- धीरे सब हुनर दिखने लगा।

उसमें कितना है जहर दिखने लगा।

आँख में कैसी खराबी आ गर्इ,
राहजन ही राहबर दिखने लगा।

लाख डींगे मारिये बेषक मगर,
आप के चेहरे से डर दिखने लगा।

जो दवायें दी थीं चारागर ने कल,
उन दवाओं का असर दिखने लगा।

जो कभी झुकता नहीं था दोस्तो
अब वही सर पाँव पर दिखने लगा।

जानवर तो जानवर हैं छोडि़ये,
आदमी भी जानवर दिखने लगा।

चलते-चलते पाँव बोझिल हो गये,
है बहुत मुषिकल सफर दिखने लगा।

जबसे आया है यहाँ पर जलजला,
तबसे बेरौनक शहर दिखने लगा।

दोस्तो पीने के पानी के लिये,
एक दिन होगा गदर दिखने लगा।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on November 28, 2013 at 8:16pm

वाह वाह आदरणीय बेहतरीन ग़ज़ल कही है आपने सादर बधाई स्वीकारें

जय हो

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 28, 2013 at 12:43pm

बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है आदरणीय बधाई स्वीकारें.


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Comment by शिज्जु "शकूर" on November 27, 2013 at 8:49pm

//आपकी उद जबान में भले ही चेहरा को .चेह्रा लिखा जाता हो और जहर को .जह्र शहर को शह्र परन्तु हिन्दी वालों ने जहर शहर चेहरा ही पुस्तकों में पढ़ा है//

आदरणीय रामअवध सर भाषा आपकी या मेरी नही होती हिन्दुस्तान की पृष्ठभूमि में ये बात तो सही है, आपकी उर्दू मेरी हिन्दी भाषा इस तरह की बातें करना पूरी तरह अप्रासंगिक है, शहर या शह्र, जहर या जह्र इसपे पहले भी चर्चा हो चुकी है लेकिन निष्कर्ष कुछ नही निकला इसलिये शह्र और जह्र को सही माना गया है, लेकिन उच्चारण के लिहाज से चेहरा का वज्न 22 ही होगा। वैसे बहुवचन ''हादसात'' नही बल्कि ''हवादिस'' होता है।

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on November 27, 2013 at 8:15pm

आदरणाीय शकूर जी इन दिनों हिन्दी में भी गजलें कही जारही हैं।हिन्दी की अपनी प्रकृति है और उर्दूकी अपनी प्रकृति। आपकी उद जबान में भले ही चेहरा को .चेह्रा लिखा जाता हो और जहर को .जह्र शहर को शह्र परन्तु हिन्दी वालों ने जहर शहर चेहरा ही पुस्तकों में पढ़ा है। उसी उच्चारण में हम हिन्दी वाले पढ़ते हैं और लिखते हैं।उदर्ू भाषा में हादसा का बहुवचन हादसात होता है परन्तु हिन्दी में बहुवचन हादसे या हादसों होता है। अब आपकी भाषा में गलत हो सकता है परन्तु हिन्दी व्याकरण से सही है।

Comment by MAHIMA SHREE on November 27, 2013 at 7:43pm

दोस्तो पीने के पानी के लिये,
एक दिन होगा गदर दिखने लगा।..... बेहद उम्दा समसामयिक गज़ल... हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय

Comment by विजय मिश्र on November 27, 2013 at 4:05pm
बहुत ही सुंदर भावों की अभिव्यक्ति , अतिसुन्दर राम अवधजी |

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Comment by rajesh kumari on November 26, 2013 at 9:25pm

आदरणीय राम अवध जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल कही है आपने हाँ कहीं कही टंकण त्रुटी है ---नीचे आदरणीय नादिर खान जी ने चेहरे की मात्रा पर संशय किया है आपकी गणना २२ सही है किन्तु चेहरा --चेह्रा लिखा जाता है ग़ज़ल में उसी तरह --जह्र - जहर 
शह्र - शहर लिखा जाता है हम भी समवेत सीख ही रहे हैं ओ बी ओ से.आपके सभी शेर बहुत पसंद आये तहे दिल से दाद कबूलें  

Comment by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2013 at 2:54pm

जो कभी झुकता नहीं था दोस्तो
अब वही सर पाँव पर दिखने लगा।....चुनाव आ रहे हैं ऐसा तो होना ही है ..हकीकत है 

जानवर तो जानवर हैं छोडि़ये, 
आदमी भी जानवर दिखने लगा।..............................बिलकुल सही कहा है आपने 

चलते-चलते पाँव बोझिल हो गये,
है बहुत मुषिकल सफर दिखने लगा।.............षि...मुश्किल ..कर लें 

दोस्तो पीने के पानी के लिये,
एक दिन होगा गदर दिखने लगा.........................सबसे बड़ी चिंता की बात ..लोग नहीं चेतेंगे तो दुखद होंगे  परिणाम 

 बेषक.....बेशक कर लें 

Comment by Shyam Narain Verma on November 26, 2013 at 10:16am
बहुत सुन्दर...बधाई स्वीकार करें ………………
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 26, 2013 at 8:20am

जानवर तो जानवर हैं छोडि़ये,
आदमी भी जानवर दिखने लगा।.........यह शेर बहुत पसंद आया

सार्थक संदेशप्रद गजल पर बधाई आदरणीय राम अवध जी

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