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प्रिये तुम तो प्राण समान हो

अंतस मन में विद्यमान हो,
तुम भविष्य हो वर्तमान हो,
मधुरिम प्रातः संध्या बेला,
प्रिये तुम तो प्राण समान हो....

अधर खिली मुस्कान तुम्हीं हो,
खुशियों का खलिहान तुम्हीं हो,
तुम ही ऋतु हो, तुम्हीं पर्व हो,
सरस सहज आसान तुम्हीं हो.

तुम्हीं समस्या का निदान हो,
प्रिये तुम तो प्राण समान हो....

पीड़ाहारी प्रेम बाम हो,
तुम्हीं चैन हो तुम्हीं अराम हो,
शब्दकोष तुम तुम्हीं व्याकरण,
तुम संज्ञा हो सर्वनाम हो.

तुम पूजा हो तुम्हीं ध्यान हो,
प्रिये तुम तो प्राण समान हो....

.

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by ram shiromani pathak on November 10, 2013 at 10:15pm

 बहुत बहुत ही  सुन्दर  प्रस्तुति आदरणीय भाई अरुण  शर्मा  जी,कुछ शंका  है ।मुझे ऐसा  लग  रहा  है भाभी जी  ने डरा  धमाका कर लिखवाया है आपसे। …हा हा हा हा  हा  .... बहुत बहुत बधाई। …सादर 

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 10, 2013 at 11:07am

आदरणीय प्रिय मित्र कुमार गौरव अजीतेन्दु जी ह्रदयतल से हार्दिक आभार मित्र स्नेह यूँ ही बना रहे.

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 10, 2013 at 11:07am

आदरणीय गुरुदेव श्री आपकी सकारात्मक टिपण्णी पाकर मन प्रफुल्लित हो उठा आपने जिन दो परिवर्तनों की ओर इशारा किया है उन्हें ठीक कर लेता हूँ. आपको गीत पसंद आया गीत सम्पूर्ण हुआ आशीष एवं स्नेह यूँ ही बना रहे.

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 10, 2013 at 11:05am

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय जीतेंद्र भाई जी

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 10, 2013 at 11:05am

हार्दिक आभार आदरणीय गोपाल नारायन सर

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 10, 2013 at 10:02am

सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रिय मित्र अरुन जी.....

//पीड़ाहारी प्रेम बाम हो, //

झंडुबाम तो सुना था, ये नया आपने बता दिया :))))))

बहुत भावपूर्ण रचना.........


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on November 10, 2013 at 8:11am

प्रिय अरूण, बहुत दिनों का आग्रह पूर्ण करने हेतु साधुवाद.मन की गहराइयों में डूबने पर ही ऐसी रचनाओं का जन्म होता है.मन पुलकित हुआ.मेरे विचार से प्रिये के स्थान पर प्रिय रख देने से यह गीत उस अनंत को भी समर्पित प्रतीत होगा जिसके हम अंश हैं.अराम शायद टंकण त्रुटि का परिणाम है,आराम होना चाहिए.भावभीने गीत के लिए बधाइयाँ...............

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on November 9, 2013 at 11:44pm

अति सुंदर रचना, मन में घर कर गई. हृदय से बधाई स्वीकारें आदरणीय अरुण अनंत जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 9, 2013 at 5:20pm

अनंत जी  प्रेम कि दुकान क्यों  ? प्रेम का सौदा या व्यापार  हमारी संस्कृति में नहीं है 

गीत भावपूर्ण हैI   मन रंजनकारी  है I

Comment by अरुन 'अनन्त' on November 9, 2013 at 5:08pm

आदरणीय गिरिराज सर बहुत बहुत धन्यवाद आपका स्नेह यूँ ही बना रहे

कृपया ध्यान दे...

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