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एक दिन तुम देखना

एक दिन तुम देखना 
एक दिन तुम देखना

खौफ और आतंक ऐसे
बढ़ रहा है आज कैसे
लाज लुटती राह में यूँ 
लगता अंधा राज जैसे 

संस्कृति के जो हैं भक्षक सब बनेंगे सरगना ...........................

मान मर्यादा मिटाई
नींव रस्मों की हिलाई
अपने में सीमित हुई है
आजकल की ये पढ़ाई

बदलो ये सब अब नहीं तो होगा खुद को कोसना ..............................

शून्य ही बस अंक होगा 
पोखरों में पंक होगा
शुष्क होंगे वन और पर्वत 
हर कोई ही रंक होगा

तुमको न पहचान पायेगा तुम्हारा आइना .............................

मेघ काले छा रहे हैं
बस अँधेरा ला रहे हैं
दर्द सब आँखों में भर के
राग कैसी गा रहे हैं

गर रहा ऐसा ही मंजर होगा फिर जीना मना ........................

गर बदलना है ये सूरत
मत बनों तुम एक मूरत
रात गुजरेगी भयानक
सुबह होगी खूबसूरत

एकता के मंत्र को बस मन के भीतर गांठना .................................

उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला 
मन में हो पुरुषार्थ सबके 

वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना .................................

एक दिन तुम देखना ,,एक दिन तुम देखना

संदीप पटेल "दीप" 

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Comment

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Comment by अरुन 'अनन्त' on January 6, 2013 at 1:39pm

आदरणीय मित्रवर बेहद सुन्दर और भावपूर्ण गीत लिखा है, मानव जीवन से जुड़े हुए तथ्यों को उजागर करती शानदार प्रस्तुति बधाई स्वीकारें

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 6, 2013 at 1:35pm

जी आदरणीय गुरुदेव आशीर्वाद और स्नेह यूँ ही बनाये रखिये
सही पकड़ा आपने भी
उसमे तदनुरूप सुधार कर लूँगा


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2013 at 7:26pm

मेरे निवेदन को सुनने और महत्व देने के लिए धन्यवाद, संदीपजी.

जिन मनोभावना और भावों के तहत आपने अपनी पंक्तियाँ कही हैं, या आपके अंदर का रचनाकार कहना क्या चाह रहा है, सारा कुछ मुझे पूरी तरह से समझ में आ गया था. लेकिन, उन पंक्तियों से क्या संप्रेषित हो रहा है या बड़े परिदृश्य में क्या समझा जा सकता है, उसी की बात मैंने अपनी पिछली टिप्पणी में की है.

आगे, रचनाकार आप हैं, मनोभाव आपके हैं, तदनुरूप पंक्तियाँ आपकी हैं. हम एक पाठक की हैसियत से जो कुछ समझ पाये उसी के अनुसार अपनी प्रतिक्रिया दे गये हैं.

गर बदलना है ये सूरत = गर बदलनी है ये सूरत

शुभ-शुभ

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 5, 2013 at 3:46pm

आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
आपके कहन को मैं कैसे टाल सकता हूँ गुरुदेव
मेरे लिए ये बड़ी बात है की आपने इस चेले पर अपनी प्रतिक्रिया रुपी आशीर्वाद की जो असीम कृपा की वो सावन के समान पावन है
आपने जो कहा एकदम ही सत्य है
मैंने जो सोच के ये इस्टेंजा लिखा वो कुछ ऐसा था
शून्य ही बस अंक होगा
"कहाँ शून्य दिखेगा ???
"कहाँ अंक होगा ????
मानव मस्तिष्क पटल तार्किक नहीं रह पायेगा वो शून्यता प्राप्त कर लेगा
वो क्या करे क्या न करे इसका उसे भान नहीं रहेगा "
वो भी तो इक शून्यता ही होगी न गुरदेव
दूसरी ओर मैंने रंक होने की बात भी वही की ही
वो भी उसकी मानसिक वृत्तियों के चलते दीन हीन होने का परिचायक
जो स्वयं पीड़ित है वो दूसरों को सुख कैसे गोचर करा सकता है
तत
गुरुदेव आप कहते हैं अभी भी ऐसे लोग देखने मिल रहे हैं
किन्तु वो सरगना ही हैं जो दिख रहे हैं
मैंने यहाँ संस्कृति के भक्षक की बात उनके लिए की है जो आधुनिकता की आंधी में बहते हुए सदैव हमारे संस्कारों का उपहास उड़ाते नज़र आते हैं और हम उन्हें आधनिक मानते हुए कल क्या होगा की कल्पना करते हैं
इस वक़्त आप देखिये की आधुनिकता को कैसे परोसा जा रहा है
कपड़ों से , ठेठ बात बोलना आदर को ताक पे रखकर, माहौल को पश्चिमी रंग में रंगना , ये सब आधुनिकता के परिचायक हैं .............
तब फिर ऐसी अवस्था में ऐसा लिखना पडा के जिन्हें हम मात्र असभ्य कह कर छोड़ रहे हैं जो हमारी संस्कृति का भक्षण कर रहा है वो इक दिन सरदार बन जायेगा और आप कुछ नहीं कर सकेंगे 

बस गुरुदेव मैंने यही सोच कर लिखा था 
आगे आपकी बात रखते हुए मैं कहता हूँ के आपने जो विश्लेष्ण किया था वो अद्भुत था और इक नज़र में ये भी माना जा सकता है किन्तु इन पंक्तियों को बाद में रखने का उद्देश्य यही था की कोई भी भ्रमित न हो के मैं क्या कहना चाहता हूँ

गुरुदेव ये आशीष मुझ पर यूँ ही बनाये रखिये
आपका बहुत बहुत आभार

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on January 5, 2013 at 3:46pm

आदरणीय अशोक सर जी , आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी , आदरणीया सीमा जी , आदरणीया डॉ प्राची जी , आदरणीय लक्ष्मण सर जी , आप सभी को सादर प्रणाम
आप सभी को रचना पसंद आई और उसके लिए आपसे मिली इन बेशकीमती प्रतिक्रियाओं के लिए मैं आप सभी  का आभारी हूँ स्नेह यूँ ही  रखिये सदैव अनुज पर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 5, 2013 at 3:31pm

रचना पढ़ कर अपनी राय से लाभान्वित करे 

बहुत सुन्दर गीत पर बधाई संदीप कुमार पटेल जी 
गर बदलना है ये सूरत 
मत बनों तुम एक मूरत 
रात गुजरेगी भयानक 
सुबह होगी खूबसूरत 
एकता के मंत्र को बस मन के भीतर गांठना

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on January 5, 2013 at 3:17pm

बहुत सुन्दर गीत लिखा है संदीप जी, 

उठ खडा हो साथ सबके 
हाथों में हो हाथ सबके 
खींच के लाने उजाला 
मन में हो पुरुषार्थ सबके 

वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना ................................. 

बहुत सुन्दर भाव , इस बंद के लिए बहुत बधाई 

Comment by seema agrawal on January 5, 2013 at 2:27pm

समाज, संस्कृति सभ्यता,मानवता यहाँ तक की पर्यावरण हर विषय पर सवाल उठाये हैं आपने रचना के माध्यम से सचेत और आगाह किया है हर एक को .......बहुत बहुत बधाई संदीप जी एक विचार विस्तार से समृद्ध रचना के लिए  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 5, 2013 at 12:51pm

आपके गीत के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ, संदीपजी.

प्रस्तुति की मुख्य पंक्ति की परछाईं में कई संदर्भों को अभी तक भविष्य की कोख में होना बताया गया है, ऐसा लगता है. यथा, संस्कृति के जो हैं भक्षक सब बनेंगे सरगना  ..!  परन्तु, ऐसे तथ्य तो आज अपनी प्रौढ़ावस्था में दिख रहे हैं, भाईजी !..   :-))

अब इस स्टान्ज़ा पर आपका ध्यान खींचना चाहूँगा.

शून्य ही बस अंक होगा 
पोखरों में पंक होगा
शुष्क होंगे वन और पर्वत 
हर कोई ही रंक होगा

दो तरह के इंगितों अथवा प्रतीकों को एक पाँत में रखने से किस तरह की उलझनें सामने आती हैं, संदीपजी, देखियेगा. मैं अपनी कुल जानकारी भर के आलोक में कुछ तथ्य साझा करने की कोशिश करता हूँ.

शाश्वत प्रतीक के अनुसार शून्य प्रथम उद्गार-अंक है यानि ब्रह्म का अंक है. ब्रह्माण्ड का मूल ही शून्य है. यदि शून्य ही बस अंक होगा  जैसा कुछ हो गया तो समस्त चराचर एक लय में संतृप्त हो जायेंगे. भाई, यही तो प्रकृति के विक्षेप (चर की लीला) का अंतिम प्रतिफल है, लक्ष्य है, अचर होना, शून्य होना ! यह अघट तो है ही नहीं कि इसके प्रति आगाह किया जाना चाहिये !

दूसरे, हर कोई ही रंक होगा  अर्थात सभी एक समान होंगे. इसे भी हम यों समझें, कि, इसी यूटोपियन समाज के स्वप्न में कई ’वाद’ विकसित हुए हैं !  विश्व-राजनीति के कई कोण और सामाजिक परिदृश्य के कई प्रारूप मार्क्स के इसी स्वप्न के बाद से वही नहीं रह गये हैं. ऐसा कुछ यदि हुआ तो दुनिया की एक बड़ी आबादी एक अलग ही तरह के जश्न में डूब जायेगी. इसमें भी बुरा क्या है ?

मेरा इतना आशय है कि हम रचना-प्रक्रिया में तर्क और तथ्यों का भी सुन्दर सुमेल करें. बिना rationalize हुई रचना असंयमित हो जाती है, ऐसा मेरा मानना है.   विश्वास है, मेरे कहे का ’सत्त’ आपको मान्य होगा.

अलबत्ता, आपकी प्रस्तुति के अंतिम दो स्टान्ज़े पूरी तरह से सधे हुए हैं, विशेषकर सबसे अंतिम स्टान्ज़ा.  उसे मैं पूरे मनोयोग से बधाइयों के साथ रखांकित करना चाहूँगा -

उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला 
मन में हो पुरुषार्थ सबके 
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना..

उपरोक्त सकारात्मकता के लिए आपको बार-बार बधाई.. !

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 5, 2013 at 9:01am

उठ खडा हो साथ सबके
हाथों में हो हाथ सबके
खींच के लाने उजाला 
मन में हो पुरुषार्थ सबके 
वक़्त के तूफ़ान में उड़ जाएगा कोहरा घना .................................
एक दिन तुम देखना ,,एक दिन तुम देखना
वाह बहुत सुन्दर भाव प्रस्तुत करता यह गीत शायद यही नवगीत है. बधाई स्वीकारें आद. संदीप जी.

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