तड़प रही है
गर्म रेत पर
मरती हुई नदी
पहले तो बाँधों ने लूटा
फिर पावर प्लांटों ने लूटा
तिस पर सारे नाले मिलकर
हर पल इसको देते कैंसर
जल्द हमारे कंधों पर
होगी ये लाश लदी
मरती नदियाँ मरते जंगल
पूँजी का मंगल ही मंगल
छोड़ सूर्य की साफ ऊर्जा
होता जीवाश्मों पर दंगल
बात-बात पर खाँस रही है
ये बीमार सदी
गर्म हो रही सारी दुनिया
भजन करें सब ले हरमुनिया
प्रभु जी झूम रहे हैं सुनकर
सिसक रहा बेचारा फ़्यूचर
मंदिर पर मंदिर बनवाए
पूँजी की नकदी
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आ. भाई धर्मेंद्र जी, सादर अभिवादन। अच्छा नवगीत हुआ है। हार्दिक बधाई।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय जयनित कुमार मेहता जी। सुधार कर दिया है।
बहुत बहुत शुक्रिया जनाब Samar kabeer साहब। सुधार कर दिया है। देर से उत्तर देने के लिए क्षमा चाहता हूँ। कुछ व्यस्तता थी इधर बीच।
बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय Mahendra Kumar जी
पर्यावरणीय चिन्ताओं पर बढ़िया नवगीत लिखा है आपने आ. धर्मेन्द्र जी। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। कृपया गुणीजनों का संज्ञान लें।
जनाब धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी आदाब, हालात-ए-हाज़िरा पर अच्छा नवगीत लिखा आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें I
'होता है कोयले पर दंगल'--इस पंक्ति की मात्राएँ एक बार चेक कर लें I
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, इस नवगीत के माध्यम से वर्तमान परिदृश्य का सटीक चित्रण किया है आपने। रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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