ग़ज़ल
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यही समाज की उलझन है क्या किया जाए
कि भाई भाई का दुश्मन है क्या किया जाए
हर एक शख़्स गरानी के दौर में देखो
ख़ुद अपने आप से बदज़न है क्या किया जाए
सभी ये कहते हैं यारो हम आशिक़ों के लिये
ये शब अज़ल ही से बैरन है क्या किया जाए
सफ़र प जाने से पहले ये सोचना है हमें
हर एक गाम प रहज़न है क्या किया जाए
जो तू नहीं है तो तेरे बग़ैर ऐ जानम
बहुत उदास ये मधुबन है क्या किया जाए
ये सोच सोच के दिल मेरा बैठा जाता है
ख़फ़ा फिर आज वो चितवन है क्या किया जाए
'समर' ख़ुशी का तसव्वुर करें तो कैसे करें
क़दम क़दम यहाँ शेवन है क्या किया जाए
"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
मुहतरम जनाब समर कबीर साहिब आदाब, बहतरीन अशआर पर उम्द: ग़ज़ल हुई है शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ। मुहतरम माज़रत के साथ जानकारी के लिए मालूम करना चाहता हूँ कि
मिसरा 'जो तू नहीं है तो तेरे बग़ैर ऐ जानम' में लफ़्ज़ 'ऐ जानम' पर एक बार फिर से विचार किया जा सकता है क्या? चूंकि 'ऐ' मौजूद शय के लिए है।
क्या 'ऐ जानम' की जगह जानेमन कह सकते हैं? सादर।
आदरणीय समर कबीर सर् नमस्कार।सर्, लाजवाब ग़ज़ल कही आपने। यह बार बार पढ़ने वाली ग़ज़ल है ।सर्, हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक बधाई आदरणीय समर कबीर साहब जी। लाजवाब ग़ज़ल
सफ़र प जाने से पहले ये सोचना है हमें
हर एक गाम प रहज़न है क्या किया जाए
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