221 2121 1221 212
1
हैं आजकल के तिफ़्ल भी यारो कमाल के
रखते नहीं हैं दिल ज़रा अपना सँभाल के
2
जाने लुग़त कहाँ से ले आए निकाल के
लिक्खे जहाँ प माइने उल्टे विसाल के
3
अपनी शराफ़तों ने ही मजबूर कर दिया
वरना जवाब देते तुम्हारे सवाल के
4
नाज़ुक ज़रूर हूँ नहीं कमज़ोर मैं मगर
अल्फ़ाज़ लाइएगा ज़ुबाँ पर सँभाल के
5
कुछ तो जनाब बोलिए इस बेयक़ीनी पर
कहिए तो हम दिखा दें दिल अपना निकाल के
6
शिकवे शिक़ायतों की कहानी है ज़िन्दगी
कुछ पल ख़ुशी के बाक़ी हैं 'निर्मल' बवाल के
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी नमस्कार।जी सहीह कहा आपने ।सर् की इस्लाह सच में बेमिसाल होती है।
ग़ज़ल तक आने तथा हौसला बढ़ाने के लिए आभार।
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार। सर्,इस्लाह देने के लिए बेहद शुक्रिय: । सर् 'ले' के लिए आगे से ध्यान रखूँगी। सभी सुधार फेयर में कर लेती हूँ । मक़्ता सहीह करके दिखाती हूँ। सादर।
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीया। बधाई...आदरणीय समर जी की इस्लाह हमेशा की तरह गौर करने लायक है।सादर
मुहतरमा रचना भाटिया जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
'जाने लुग़त कहाँ से ले आए निकाल के
लिक्खे जहाँ प माइने उल्टे विसाल के'
इस शैर के ऊला में 'ले' शब्द को 1 पर लेना उचित नहीं,पहले भी बताया जा चुका है,और सानी में 'माइने' कोई शब्द नहीं होता,ग़ौर करें,इस
शैर को यूँ कह सकती हैं:-
'जाने लुग़त कहाँ से वो लाये निकाल के
मा'ना लिखे हैं उल्टे ही जिसमें विसाल के'
'अपनी शराफ़तों ने ही मजबूर कर दिया'
इस मिसरे को यूँ कहें:-
'मजबूर हमको अपनी शराफ़त ने कर दिया'
'शिकवे शिक़ायतों की कहानी है ज़िन्दगी
कुछ पल ख़ुशी के बाक़ी हैं 'निर्मल' बवाल के'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं,ग़ौर करें ।
आदरणीय समर कबीर सर् सादर नमस्कार।
आदरणीय आज़ी तमाम जी नमस्कार। हौसला बढ़ाने के लिए आभार।
सादर प्रणाम गुरु जी
जी गुरु जी क्षमा करें जल्दाबाजी में ऐसा हो जाता है आगे से ऐसा नहीं होगा
शुक्रिया बात सीधे सीधे कहने के लिये
बेहद ही क्षमा प्रार्थी हूँ
जनाब आज़ी जी, ओबीओ की परिपाटी है कि जिसको भी टिप्पणी करें उसे आदरणीय,जनाब वग़ैरह से सम्बोधित करें,दूसरी बात देवनागरी के इलावा अंग्रेज़ी भाषा और रोमन लिपि का प्रयोग न करें ।
शिकवे शिकायतों की............ बेहतरीन
बेहद मधुर है
शुक्रिया रचना जी बेहद अच्छी ग़ज़ल हुई है
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