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सोच का सफ़र (लघुकथा )

जब मैं कल रात ड्यूटी से घर आई , तो महाभारत घर में पहले से ही हमेशा की तरह चल रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा कि जब घर वालों ने अपनी मर्जी से मेरी शादी की, मेरी राय तक नहीं पूछी गई l क्यूंकि मेरे जैसी जो पहले ही तीस पार कर चुकी होl उन से भला कौन राय लेता l मैं तो बोझ थी, जिसको निपटाना चाहा l जानलेवा बीमारी ने शादी के कुछ महीनों बाद ही उनको मुझसे जब दूर कर दिया। तब मुझे लगा, अब मुझे उस घर में एक अजनबी की तरह नहीं रहना चाहिए, मैं जल्दी से उनका बोझ कम करना चाहा। उनके जाने के बाद, मैं उस घर में अकेले कैसे रह सकती थी, उसके चाचा ने शादी की, अब वह मेरा बोझ कहाँ उठाएंगे, लेकिन मैं अपने घर वापस आने के बाद भी, घर में कड़वाहट भरे माहौल के कारण मुझे नौकरी करने के बाद भी रहना मुश्किल हो गया। मगर घर से बाहर निकलकर ही कोई जीवन की सच्चाई का सामना कर सकता है, मुझे अब इस बात का अहसास हो गया है, जैसे रोज घर में ऐसा माहौल चल रहा है, इस में अब रहना मुश्किल हो गया । तो आज मैंने घर छोड़ने का मन बना लिया है, काम के बाद घर आने की बजाय, मैंने कामकाजी महिलाओं के लिए बने क्वार्टरों की ओर अपने कदम बढ़ा दिएl 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Samar kabeer on November 8, 2020 at 12:31pm

जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब, आपकी लघुकथा अभी समय चाहती है, बहरहाल इस प्रस्तुति पर बधाई ।

Comment by मोहन बेगोवाल on November 5, 2020 at 9:34pm

  सोच का सफ़र

कल रात जब मैं ड्यूटी से घर आई, तो घर में पहले जैसी महाभारत चल रही थी l मुझे तो लगता है कि मैं तो यहाँ भी बिगानी बनी हूँ , ये मुझे समझ नहीं आ रही कि जब उन्होंने मेरी शादी अपनी मर्जी से कर दी, कब मेरे साथ वो चला बीमारी के साथ भी उसने शादी की जो जल्दी उसे ले गई l
मेरी कब राए ली थी, शादी करते वक्त, लेते भी क्यूँ, मैं पहले ही तीस पार कर चुकी थी l वह तो अपने बोझ को कम करना चाहते थेl
मैं भी उस घर में अकेले कैसे रहती, चाचे ने शादी की, अब वह मेरा बोझ कहाँ उठाता l यहाँ आ कर भी मैंने तल्ख़ माहौल कारण नौकरी कर लीl मगर घर से बाहर निकल कर ही जिंदगी की सचाई के रूबरू हुआ जा सकता है , मुझे ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, आज मैंने घर छोड़ने का मन बना लिया है । और सुबह मैं नौकरी से घर की तरफ़ आने की जगह मेरे पाँव नौकरीसुदा औरतों के लिए बने क्वाटर की तरफ़ बढ़ गए l

Comment by Chetan Prakash on November 5, 2020 at 6:09pm

'सोच का सफर' शीर्षक के आलोक मे अच्छी लघु कथा कही जाएगी। परन्तु लघु कथा, क्षमा करें, सत्य के बोध जिस क्षण में घटित होता है उसको समर्पित होती है, न कि अनावश्यक वृतान्त को, आदरणीय मोहन बेनोवाल साहब । सादर

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