झोल खाई हुई खुशी
तारों भरी रात, फैल रही चाँदनी
इठलाता पवन, मतवाला पवन
तरू-तरु के पात-पात पर
उमढ़-उमढ़ रहा उल्लास
मेरा मन क्यूँ उन्मन
क्यूँ इतना उदास
खुशी ... पिघलते हुए मोम-सी
जाने क्यूँ उसे हमेशा
होती है जाने की जल्दी
आती है, चली जाती है
आ..ती है
आलोप हो जाती है
ठहर जाती है आकर मेरी छत पर अकसर
कोई दुखती टुकड़ी सफ़ेद बदली की
देखती रहती है मुझको पथराई नज़र से
सांतवना देने या लेने ...कब कौन जाने
अचानक उभर आती है एक आकृति
पहले कुछ कहने को आतुर-सी
फिर चीख अपनी रोक लेती है
शायद तुम ...
सिलसिला है कैसा प्रकृति के नियमों का
खुशी आती है, आते ही चली जाती है
कभी मिट्टी के पुराने मकान-सी
ज़रा-सी ठोकर लगते ही
अपनी ही आँखो के सामने ढह जाती है
अवधि वेदना की समाप्त नहीं होती
"वायरस" के समान फैलती
बढ़ती जाती है ... साँस उखड़ने तक
दरवाज़े भारी भी सारे खुल जाते हैं तब
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय भाई समर कबीर जी।
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, प्रिय मित्र लक्ष्मण जी।
प्रिय भाई विजय निकोर जी आदाब, बहुत अच्छी कविता हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आ. भाई विजय निकोर जी, सादर अभिवादन । सुन्दर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
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