जाल .... ( 4 5 0 वीं कृति)
बहती रहती है
एक नदी सी
मेरे हाथों की
अनगिनित अबोली रेखाओं में
मैं डाले रहता हूँ एक जाल
न जाने क्या पकड़ने के लिए
हाथ आती हैं तो बस
कुछ यातनाएँ ,दुःख और
काँच की किर्चियों सी
चुभती सच्चाईयाँ
डसते हैं जिनके स्पर्श
मेरे अंतस में बहती
जीत और हार की धाराओं को
काले अँधेरों में भी मुझे
अव्यक्त अभियक्तियों के रँग
वेदना के सुरों पर
नृत्य करते नज़र आते हैं
नदी
हाथों की रेखाओं में
अविरल बहती रहती है
जाल में
सब कुछ मिलता है
मगर
नहीं मिलती तो बस
ज़िंदगी नहीं मिलती
जाल
स्वयं से लिपट जाता है
ज़िंदगी को ढूंढता इंसान
पानी सा बिखर जाता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राज नवादवी साहिब, आदाब। .... सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का तहे दिल से शुक्रिया।
आदरणीय सुशील सरना जी, बहुत बहुत बधाई. सुन्दर रचना और लेखन कार्य में एक मुकाम हासिल करने, दोनों के लिए. सादर
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब .... आपकी आत्मीय प्रशंसा ने सृजन को आहत होने से बचा लिया। आपका तहे दिल से शुक्रिया। आपके अस्वस्थ होने का सुनकर मैं चिंतिति हूँ। अल्लाह आपको अच्छी सेहत बख्शे।
जनाब सुशील सरना जी आदाब,आप तो जानते हैं कि जब मैं बीमार होता हूँ तब ही मंच पर नहीं आ पाता,अन्यथा हाज़िरी पूरी रहती है ।
आपकी 450 वीं कविता भी हमेशा की तरह बहुत ख़ूब हुई है,इस कृति के लिए दो बार बधाई स्वीकार करें ।
४५०वीं कृति मंच के स्नेह से तृषित। इतनी उपेक्षा के बाद शायद इसका जाना ही उचित होगा। क्षमा सहित प्रणाम।
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