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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव's Blog (216)

पाषाण होने तक

विद्रोहिणी सी बन गयी थी मैं

मेरी कुंठा और संत्रास 

कैसे पनपे

नहीं जान पाई मै

और कितना असत्य था

उनका दुराग्रह   

यह तब मैं न जानती थी

सच पूछो तो

नहीं चाह्ती थी जानना भी

कोई समझाता यदि

तो आग लग जाती वपुष में

अरि सा लगता वह

पर कोई देता यदि प्रोत्साहन

मुझे उस गलत दिशा में जाने का

तो वह लगता सगा सा

हितैषी और शुभेच्छु

संसार का सबसे प्रिय जीव  

क्योंकि तब थी मैं  

उसके प्यार…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 7, 2016 at 8:13pm — 3 Comments

अनुराग

 छंद – वंशस्थ विलं

जगण तगण जगण रगण

121  221  121  212

 

जहाँ मनीषी प्रमुदा रहें सभी

जहां सुभाषी मधुरा प्रमत्त हों

जहां सुधा हो सरसा प्रवाहिता

वहां सदा है अनुराग राजता

 

उदार सारल्य स्वभाव में बसे

रहे मुदा निश्छलता नवीनता

सुकांति में हो कमनीयता घनी

वहां सदा है अनुराग राजता

 

वियोग में भी हिय की समीपता

नितांत तोषी मनसा समर्पिता

जहाँ शुभांगी पुरुषार्थ रक्षिता

वहां सदा है अनुराग…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 3, 2016 at 9:30pm — 2 Comments

कृष्ण ने कहा था

वह समय था

जब हम जाते थे माँ के साथ

नीरव-विजन मंदिर में

देव-विग्रह के समक्ष

सांध्य-दीप जलाने

क्रम से आती थी गाँव की

अन्य महिलाएं  

मिलता था तोष

एक अनिवर्चनीय सुख

जबकि नहीं देते थे भगवान्

कुछ भी प्रत्यक्षतः

सिर्फ रहते थे मौन

आज वही विग्रह

करते है अवगाहन रात भर

ट्यूब–लाइट की दूधिया रोशनी मे

नहीं आती अब वहां ग्राम की बधूटियां

पर उपचार, देव-कार्य करते हैं

एक उद्विग्न कम उम्र के…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2016 at 11:04am — 1 Comment

कबाड़ी काल

 कुछ भी

अनुपयोगी नहीं है

उसके लिए

सभी पर है

उसकी निगाहें 

गहन कूड़े से भी

बीन और लेता है छीन

वह

प्राप्य अपना 

जो है जगद्व्यव्हार में

वह भी

और जो नहीं है वह भी

बीन लेगा एक दिन वह 

पेड़ –पौधे,  नदी=-पर्वत

और पृथ्वी

यहां तक की जायेगा ले    

सूरज गगन, नीहार, तारे

चन्द्र भी

ब्रह्माण्ड के सारे समुच्चय

लोग कहते हैं प्रलय 

कहते रहे  

किन्तु तय है

बीन…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 14, 2016 at 7:22pm — 4 Comments

संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I उस  शब्द-हीन सन्नाटे में  ईश्वर का राग सुना मैंने II                                                   पुच्छल  तारे की थी वीणा शशि-कर के तार सजीले …

संध्या के बाद पूर्व ऊषा तक जो निशि भाग चुना मैंने I

उस  शब्द-हीन सन्नाटे में  ईश्वर का राग सुना मैंने II

                                                 

पुच्छल  तारे की थी वीणा

शशि-कर के तार सजीले थे

उँगलियाँ चलाता था मारुत

रजनीले  लोचन  गीले थे

सरगम संगीत प्रवाहित था अपना प्रतिभाग गुना मैंने I

संध्या के बाद पूर्व ऊषा  ---------------------------------

 

मुखरित होता है मौन कभी

नीरवता  में  भी रव होता

धरती…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 6, 2016 at 2:54pm — 8 Comments

हो जाते हैं हाथ दूर- गीत

(आदरणीय सौरभ पाण्डेय के पितृ-शोक  पर एक हार्दिक  संवेदना )

पहले संदर्भ प्रसंग सहित इस जगती में परिभाषित कर 

फिर हो जाते हैं हाथ दूर जीवन का दीप प्रकाशित कर

.

देते  हैं  वे  सन्देश  हमें

हर दीपक को बुझ जाना है

पर ज्योति-शेष रहते-रहते

शत-शत नव दीप जलाना है

फैलायी जो रेशमी रश्मि उसको अब रंग-विलासित कर

पहले संदर्भ प्रसंग सहित......

.

है  सहज  रोप  देना पादप

तप है उसको जीवित रखना

करना…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 21, 2016 at 10:00pm — 4 Comments

लोक मानस के बीच का राग

भाषा क्या है ?

चेतन प्राणियों में

वैचारिक अभिव्यक्ति का साधन

भाषा होती होगी

पशु-पक्षियों की भी

बस उसे हम समझते नहीं

जैसे विश्व की तमाम भाषाये

बाहर है

ह्मारी समझ की परिधि से

पर भाषा महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है

कि उससे मनोभावों की तरह ही

संप्रेषित होते है विचार

भाषा का महत्त्व और उसकी ताकत

लोक मानस के बीच का वह राग भी है

वह अंतर्संबंध भी है 

जिसका जन्म होता है उसी भाषा से

जिससे होता…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 10, 2016 at 12:33pm — 3 Comments

कांपती हूँ निरंतर शिखा जो हूँ

मैं हूँ शिखा

उस टिमटिमाते दीप की

कि जिसको है

हवा का शाश्वत भय 

चुप क्यों खडा है तब

आ मार निर्दय !

मार खाने को बनी हैं

नारियां सुकुमारियाँ

मैं कांपती हूँ निरंतर

शिखा जो हूँ

प्रज्वलित उस दीप की  

(मौलिक अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 2, 2016 at 6:09pm — No Comments

कविता के मर जाने तक

उस दिन जब हम मिले थे 

पहली बार

हम चुप रहे

या यूँ कहो बोल ही न सके

और फिर यूँ ही मिलते रहे

तब तक  

जब तक तुमने शुरु नही किया

बोलना

हालांकि मैं 

बोल न सकी फिर भी

अधर थरथराये जरूर

पर खोल न सकी मुख

पर तुमने जब शुरू किया

तो जाने कहाँ से

शब्दों का समंदर उमड़ पड़ा  

और मैं

उसके घात-प्रतिघात के बीच

खाती रहे हिचकोले

मंत्र-मुग्ध, आतुर, विह्वल  

 

मैं जानती…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 30, 2015 at 4:37pm — 4 Comments

निन्यानबे के फेर में

निन्यानबे के फेर में

हूँ मैं  

लोग देखते है मुझे

ईर्ष्या से या हिकारत से

क्योंकि वे जानते हैं

केवल और केवल एक मुहावरा 

मानव की कमजोर वृत्ति का

धन संचय की उत्कट प्रवृत्ति का

उन्हें यह  पता ही नहीं कि

मुहावरे के पीछे होता है

कोई चिरंतन सत्य या एक इतिहास  

और बहुत सारे मायने

वे सोचते भी नहीं

कि निन्यानबे वे वैशिष्ट्य भी हैं  

जिनके आधार पर  उस ऊपर वाले के है

निन्यानबे…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 26, 2015 at 12:00pm — 8 Comments

वह रहस

आदम फितरत है

भई

राम ने आसन्न -प्रसूता

को छोड़ दिया वन में

जीने, भटकने या  मरने 

भला हो वाल्मीकि का --- I

और कुछ ऐसा ही किया

कृष्ण ने राधा के साथ

छोड़ दिया निराश्रित

जीने, भटकने या मरने I

सीता का अंत तो जानते है सभी

इसी माटी में दफ़न हुयी थी कभी

पर राधा ------?

कब तक तकती रही राह ?

भेजती रही पाती और सन्देश

फिर कहाँ गयी वह ?

कैसे हुआ उसका अंत ?

किसी ने भी याद नही रखा

लानत…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 16, 2015 at 7:19pm — 2 Comments

अभिलाषा जाग रही

सूने आंगन में जाल बिछा चांदनी रात सोयी रोकर

मेरी अभिलाषा जाग रही रागायित हो पागल होकर

मैं समय काटता रहा विकल

दायें-बायें  करवटें   बदल

घिर आये मानस-अम्बर पर

स्वर्णिम सपनीले बादल-दल

बौराया घूम रहा मारुत अपनी सब शीतलता खोकर  

सपनो में चल घुटनों के बल

सरिता तट पर आया था जब

कह डाला कुछ मन की मैंने

वह बज्र प्रहार हुआ था तब

सायक सा टूटा था अंतस निर्दयता  की खाकर ठोकर  

 यह नाग आँख में है अविरल

छोड़ता निरंतर…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 10, 2015 at 8:30pm — 5 Comments

हाँ, तुम बंट गए उस दिन कबीर

हाँ, तुम बंट गए उस दिन कबीर

 

अहो कबीर !

कही पढा था या सुना

तम्हारी मृत्यु पर

लडे थे हिन्दू और मुसलमान 

जिनको तुमने

जिन्दगी भर लगाई फटकार

वे तुम्हारी मृत्यु पर भी

नहीं आये बाज

और एक

तुम्हारी मृत देह को जलाने   

तथा दूसरा दफनाने  

की जिद करता रहा

और तुम

कफ़न के आवरण में बिद्ध

जार-जार रोते इस  मानव प्रवृत्ति पर 

अंततः हारकर मरने के बाद…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 28, 2015 at 6:00pm — 24 Comments

चिता कब बनोगी ?

 पौरुष ने उठाया हाथ

सहनशीलता  ने

कर तो लिया बर्दाश्त

पर चेहरा विकृत हुआ

अधर काँपे

आँखे पनिआयी 

झट वह चौके में चली गयी

बेटी दौड़ी-दौड़ी आयी

क्या हुआ माँ ?

कैसी आवाज आयी ?

और यह क्या तू रोती है ?

नहीं बेटी, ये लकड़ियाँ ज़रा गीली है

धुंआ बहुत देती है

आँख में गडता है, पानी निकलता है

बेटी ने कहा – ‘ माँ !

गीली लकड़ी का

तुमसे क्या सम्बन्ध है ?

माँ ने कहा ‘ हम दोनों

जलती…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 12, 2015 at 4:30pm — 11 Comments

आवेश

सहसा

छा जाता है आवेश

कुछ लगता है सनसनाने

मस्तिष्क में होने लगता है

घमासान 

हाथ हठात पहुँचते है

लेखनी पर

इतना भी नहीं होता

कि तलाश लें

कोई कायदे का कागज

नोच लेता है हाथ

किसी अखबार का टुकड़ा

या किसी रद्दी का खाली भाग 

और दौड़ने लगते है उस पर

अक्षर निर्बाध 

अवचेतन सा मन

मानो कोई उड़ेल देता है

उसमें भावों की सम्पदा  

जो स्वस्थ चित्त में

चाह कर भी नहीं उभरता…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2015 at 8:44pm — 5 Comments

इतने सारे फंदे- डा 0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

बहुत से फंदे है

उनके पास

छोटे-बड़े नागपाश

इन फंदों में

नहीं फंसती उनकी गर्दन

जो इसे हाथ में लेकर

मौज में घुमाते है

लहराते है

किसी गरीब को देखकर

फुंकारता है यह

काढता है फन 

किसी प्रतिशोध भरे सर्प सा

लिपटता है यह फंदा

अक्सर किसी निरीह के  

गले में कसता है

किसी विषधर के मानिंद

और चटका देता है

गले की हड्डियाँ

किसी जल्लाद की भांति …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 25, 2015 at 12:26pm — 14 Comments

असहज अनियंत्रित- डा0 गोपल नारायन श्रीवास्तव

आज भी कभी

जब उधर से गुजरता हूँ

उतर जाता हूँ

उस खास स्टेशन पर

टहलता हूँ देर तक

लम्बे प्लेटफार्म पर

बेसुध आत्मलीन

 

फिर चढ़ जाता हूँ रेलवे पुल पर

तलाशता हूँ वह् रेलिंग

वह ख़ास जगह

टटोलकर देखता हूँ 

शायद वही जगह है

स्तब्ध हो जाता हूँ

लगता है कोई

सोंधी महक

सहसा उठी और

सिर से गुजर गई

 

नीचे आता हूँ

फिर पुल के नीचे

पुल के आधार…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 18, 2015 at 7:56pm — 5 Comments

पूजेंगे उन्हें हम फिर

कब हुयी थी बात जनता से

कब आए थे तुम हमारे गाँव

कब फांकी थी तुमने गलियारे की धूल

कब तुम्हारी खादी पर जमी थी गर्द की परतें

कब दिया था आख़री भाषण यहाँ पर डूब कर पसीने में

कब किया ब्यालू यहाँ के एक हरिजन संग

और पानी था पिया अकुआगार्ड का जो साथ थे लाये

गाँव को तो याद है वह दिन, भूल जाते हो मगर तुम

देश की संसद बड़ी है, डूब जाते हो वही तुम

देश का दुर्भाग्य है वह नहीं मिल पाता कभी भी

चाह कर तुमसे बड़े बंधन है अजब…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 23, 2015 at 9:30am — 4 Comments

अभागा

    

 ईश्वर अलक्ष्य है क्या ?

शायद –

तब तुमने माँ को नहीं जाना

न समझा न पहचाना

सचमुच

अभागा है तू

(मौलिक व् अप्रकाशित )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2015 at 9:30am — 22 Comments

आती है याद

जलते तो है सभी

पर जलने का भी होता है

एक ढंग, एक कायदा,

एक सलीका

जब मै किसी दिए को

किसी निर्जन में

जलते देखता हूँ निर्वात   

तब समझ पात़ा हूँ

कि क्या होता है

तिल–तिल कर जलना,

टिम-टिम करना 

घुट-घुट मरना

और तब मुझे याद आती है

मुझे मेरी माँ

जीवनदायिनी माँ 

सब को संवारती

खुद को मिटाती माँ !

(अप्रकाशित व् मौलिक )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:30pm — 15 Comments

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