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Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan"'s Blog (167)

जीवन पथ में, तेज़ धूप, तुम घने पेड़ की छाया माँ-ग़ज़ल

22-22-22-22-----22-22-22-2

जीवन पथ में, तेज़ धूप, तुम घने पेड़ की छाया माँ।

इस मन्दिर सा पावन दूजा, मन्दिर कहीं न पाया माँ।।



जब भी दुख के बादल छाये, मन तूफ़ाँ से घिरा कभी।

इस चेहरे पर दर्द की रेखा, और कौन पढ़ पाया माँ।।



तुम अपने सारे बच्चों  को, कैसे बांधे रखती हो।

जबकी सबके अलग रास्ते, फिर भी एक बनाया माँ।।



विह्वल व्यथित हृदय की धड़कन, ज्यूँ अमृत पा जाती है।

जब भी सर पर कभी स्नेह से, तुमने हाथ फिराया माँ।।



जब भी दर्द यहाँ उट्ठा है, चोट कहीं…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 30, 2016 at 1:30pm — 10 Comments

जगना कहाँ ज़रूरी है?

22-22-22-22----------2212-1222



सोते रहिये, किसने टोका, जगना कहाँ ज़रूरी है?

ढ़ोते रहिये, जीवन बोझा, रखना कहाँ ज़रूरी है?



क्या मतलब है, और किसी से, अपने रहें सलीके से।

लिखते रहिये, इन पन्नों से, हटना कहाँ ज़रूरी है।।



घर से बाहर, भूले से भी, मेहनत ज़रा न करियेगा।

चिंतन करिये यूँ ही, कुछ भी, करना कहाँ ज़रूरी है।।



राहों में घायल को छोड़ें, व्याकुल पड़े ही रहने दें।

कलयुग में सिद्धार्थ का बुद्धा,बनना कहाँ ज़रूरी है।।



रावण…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 28, 2016 at 8:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल-इस्लाह के लिये

22-22-22-22-22-22-222

मेरे शब्दों को तुम अपनी ख़ुश्बू सा महका दो तो।

मेरे छंदों को तुम अपनी पायल सा खनका दो तो।।



ये जो मनमोहक सी तेरी चाल में इक चञ्चलता है।

अधरों से छू कर ग़ज़लों को, हिरनी ज़रा बना दो तो।।



रेशम सी आवाज़ का ज़ादू, इन भावों में जगा ज़रा।

सुर सरगम का गहना इनको, प्रिये आज पहना दो तो।।



हर्फ़ बिछे हैं कागज़ पर सब, प्राण हीन तन के जैसे।

इन काली रेखाओं को भी, ज़िंदा आज बना दो तो।।



क्यों कहती हो प्रीत नहीं जब, झूठ बोलना नहीं… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 25, 2016 at 11:02pm — 15 Comments

शेक्सपीयर के नाम-एक सॉनेट

अगर मैं मर जाऊँ, प्रियतमा मत रोना तुम।

स्वर्ग लोग की तभी, घण्टियाँ सुन पाओगी।

अधम पतित संसार, को देना सूचना तुम।।

एक रूह इस जगत, अपावन से अब चल दी।।



तू ये रचना पढ़े, रचयिता याद न आये।

चाहत तो थी कई, किन्तु चाहत है ये अब।

दीवाना ये मनस, नगर में रह ना पाये।।

क्योंकि यदि सोचोगे, शोक में डूबोगे तब।।



जबकि माटी होकर, गीत ये लिखता हूँ मैं।

कहीं प्रेम का भाव, न जग जाये फिर तुझमें।

हो ना तू बदनाम, प्रियतमा डरता हूँ मैं।

मेरा नाम तलाश,…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 24, 2016 at 9:00am — 2 Comments

तुम गए तो प्राण का जाना लिखा

तुम गए तो प्राण का जाना लिखा

बिन तेरे निःश्वांस हो जाना लिखा।

देखिये ना प्रेम की जादूगरी

स्वयं को मीरा तुम्हें कान्हा लिखा।।1।।

जब कभी भी पूर्णिमा का चाँद निकला

खिडकियों से झांककर आगे चला।

भाग कर छत पर गया देखा तुम्हें

और झट से तेरा आ जाना लिखा।।।।2।।

एक भीनी सी सुरभि जब भी कभी

मेरे कमरों की हवाओं में घुली।

मैंने खुद को फिर मचलता देखकर

रात रानी का महक जाना लिखा।।3।।

जब कभी अवसाद सागर में मेरी



नाव मन की…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 14, 2016 at 6:35pm — 10 Comments

निगाहें- ग़ज़ल

22 122 22 122
जबसे हैं तुमसे, उलझीं निगाहें।
इक दूसरे में, डूबीं निगाहें।।

मौका लबों को देती नहीं हैं।
बातें करें खुद, अपनीं निगाहें।।

दुनिया की कोई परवा नहीं है।
मिलकर झपकना, भूलीं निगाहें।।

जब भी हुई हैं, तुमसे जुदा ये।
तूफ़ाँ उठा औ' बरसीं निगाहें।।

अब छोड़कर के, जाना नहीं तुम।
बस ये ही तुमसे, कहतीं निगाहें।।

मौलिक-अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 12, 2016 at 3:44pm — 2 Comments

जाने कितना प्रश्न करती

2122 2122 2122 2122

जाने कितना प्रश्न करती, और हरदम खिलखिलाती।

अपने मन में पीर जाने, कौन सी वो है छिपाती।।



जब मिली ज़िंदा हुआ हूँ, जब मिली मैं गुनगुनाया।

हर दफ़ा कागज़-कलम, की राह मुझको है दिखाती।।



उसके शब्दों से कोई कागज़ कभी भी जब सजाया।

खूब है हर बार ही वो तो ग़ज़ल बनकर रिझाती।



चूमती नज़रों से जब, मदहोश हो जाता हूँ मैं।

क्या कहूँ पगली वो लड़की, मुझको पागल है बनाती।।



कोई उसको बोल भी दो, ठीक ये बिल्कुल नहीं है।

प्यास सदियों की… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 30, 2016 at 6:38pm — 8 Comments

होली विशेष

बिखर रहे हैं व्योम में, तरह तरह के रंग।

सबके भीगे अंग हैं, मन में भरी उमंग।।



होली के इस पर्व की, अद्भुत है हुड़दंग।

कोई नाचे राह में, कोई बाँटें भंग।।



चूँ चूँ चूँ चूँ गा रही, गौरैया भी गीत।

मैं भी बैठा सुन रहा, क्या कहती ये मीत।।



डी जे वाला शोर ये, मुझको नहीं पसंद।

जाने कौन बजा रहा, भद्दे भद्दे छन्द।।



मैल मिटा कर मेल कर, मन का निखरे रंग।

वर्ग विभाजन बन्द कर, बदलो अपने ढंग।।



हम लोगों के मेल में, भारत का… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 23, 2016 at 10:48am — 4 Comments

ज़िंदा अभी तलक हैं, रावण दहेज़ वाले

2212 122 2212 122

दुःख सर पे चढ़ गया है, पीड़ा पिघल रही है।

हालात की तपिश से, नदिया निकल रही है।।

 

मरघट सा हो गया है, हर रास्ता शहर का।

इंसानियत चिता पर, हर ओर जल रही है।।

 

ज़िंदा अभी तलक हैं, रावण दहेज़ वाले।

अब भी दहेज़ वाली, क्यों सोच पल रही है।।

 

विद्रोह कर रही है, अब सोच भी हमारी।

क्यों मौन हूँ अभी तक, ये बात खल रही है।।

 

ग़र चे कलम के बदले, हथियार उठ गया तो।

पंकज से फिर न…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 21, 2016 at 11:30am — 6 Comments

मनस पृष्ठ मुझको पढ़ाती नहीं हो- ग़ज़ल

122 122 122 122



निगाहें भला क्यूँ मिलाते नहीं हो।

मनस पृष्ठ मुझको पढ़ाते नहीं हो।।



छिपाते हो तुम राज अपने जिया के।

बताओ मुझे क्यों बताते नहीं हो।।



हैं चेहरे पे क्यों ये उदासी की पर्तें।

भला नूर क्यूँ तुम दिखाते नहीं हो।।



सघन वेदना के जो घन हैं हृदय में।

भला फिर क्यूँ दरिया बहाते नहीं हो।।



मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है।

सिवा इसके तुम मुस्कुराते नहीं हो।।



है 'पंकज'का नाता अगर नीर ही से।

तो नैनों में…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 14, 2016 at 12:00am — 17 Comments

शिवरात्रि विशेष

महाशिवरात्रि के पावन अवसर पर समस्त शिव भक्तों को सादर भेंट

.

जटाओं से निकल रही है, धार गंग नाथ शिव।

मुस्कुरा रहे गले में, धर भुजंग नाथ शिव।।

डमड्ड डमड्ड निनाद पर, हैं नृत्य कर रहे सभी।

मन लुभाये रूप आपका, मलंग नाथ शिव।।1।।



पाँव में कड़ा है और, त्रिशूल हाथ में धरे।

बाँध कर कमर में छाल, व्याह को चले हरे।।

चन्द्र ये ललाट पर, है विश्व दंग नाथ शिव।

मन लुभाये रूप आपका, मलंग नाथ शिव।।2।।



भंग की खुमार में हैं मस्त आज तो सभी।

सिर विहीन…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 6, 2016 at 9:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल-पंकज मिश्र

2212 121 1222 212



इतना कमाल हुस्न, दिखाया ही किसलिये।

होनी नही थी बात, बुलाया ही किसलिये।।



मौका नहीं था देना, इबादत का ग़र हमें।

बुत से भला नक़ाब, हटाया ही किस लिये।।



सुननी नहीं थी तुमको, अगर मेरी आरज़ू।

फिर नाम का भजन ये, सिखाया ही किसलिये।।



हम भूल ही गये थे, कि लेनी है साँस भी।

जब मारना ही था तो, जिलाया ही किसलिये।।



अरमान सब थे दफ़्न, सुकूँ में बहुत थे हम।

बर्बाद गुल था करना, खिलाया ही किसलिये।।



मौलिक…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 5, 2016 at 12:00am — 9 Comments

मन तू भला बात कब मानता है- ग़ज़ल ( सुझाव अवश्य दें)

2212 2122 122 2212 2122 122



बोला तो था प्यार करना नहीं पर, मन तू बता, बात काहें न मानी।

इस राह में मुश्किलें हैं बहुत सी, बोला तो था, बात काहें न मानी।।



समझाया था है अगन पथ मुहब्बत, जलने से आगाह तुमको किया था।

छालों की सौगात लेकर तड़प अब, तेरी ख़ता, बात काहें न मानी।



तूफ़ाँ वहीँ अपने भीतर में ही रख, गर्जन ये दिल की तू खुद में चुरा ले।

नैनों से नदिया बहाना मना है, अब सह सज़ा, बात काहें न मानी।।



खामोशियों की चदरिया में अब तो, बांधों समेटो हाँ… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 29, 2016 at 12:30am — 9 Comments

दोहे-पंकज का प्रयास

राजनीति के खेल में, दाँव लग गया देश।
घूम रहे गद्दार भी, धर नेता का वेष।।

बच कर रहिये दोस्तों, करिये सोच विचार।
उकसावे में अन्य के, न करिये व्यवहार।।

चञ्चल मन को रोकिये, हिंसा तो है पाप।
संविधान की बात को, प्रथम मानिये आप।।

यहाँ वहां मत फेंकिये, कूड़ा कचरा यार।
आएगा उड़ कर वही, पुनः आपके द्वार।।

पंकज का तो नीर से, जीवन का सम्बन्ध।
जिसकी आँख में है नहीं, कैसे हो अनुबंध।।


मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 12:45pm — 6 Comments

संग क़ातिल का तू मांगता, क्या करूँ- ग़ज़ल इस्लाह के लिये

2122 122 122 12
है गज़ब का तेरा, मामला क्या करूँ।
संग क़ातिल का तू, मांगता क्या करूँ।।

ये मुहब्बत की औ मुस्कुराने की ज़िद।
मन तू पागल हुआ, जा रहा क्या करूँ।

डूबकर तू नज़र के समन्दर में भी।
आंसुओं से बचत, चाहता क्या करूँ।।

जाल में खुद उलझ कर परिंदे बता।
ख्वाब परवाज़ के, देखता क्या करूँ।।

तू बता खुद ही तू, रास्ता अब दिखा।
आग से प्यास का, फैसला क्या करूँ।।

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 14, 2016 at 10:01am — 7 Comments

गुनगुनाऊँ मैं- ग़ज़ल (पंकज)

1222 1222 1222 1222



सदा खामोश रहने से है बेहतर गुनगुनाऊँ मैं।

कभी खुद की कभी औरों की ख़ातिर मुस्कुराऊँ मैं।।



ग़मों के नीर से दुनिया तो वैसे ही लबालब है।

बताओ क्यों भला आँखों से दरिया इक बहाऊँ मैं।।



रुलाने के लिए कारण बहुत सारे हैं राहों में।

अभीप्सा है कि रोते मन को भीतर तक हंसाऊँ मैं।।



नहीं मालूम हूँ कितना सफल मैं इस प्रयोजन में।

बिना फल की किये चिंता करम करता ही जाऊँ मैं।।



हाँ इतना तो है तय लोगों के भावों तक पहुंच… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 9, 2016 at 11:00pm — 13 Comments

एक दिन आऊँगा मिलनें, प्रलय बनकर के मनुज।।- पर्यावरण की चेतावनी पंकज की लेखनी से

मैं धरा पर्यावरण कुछ कह रहा तुमसे मनुज।

धरा है माता तुम्हारी मैं पिता सुन ले मनुज।।



धरा का मातृत्व मुझसे, आभरण धरती का मैं।

धरा है तब तक सुहागन, सकुशल जब तक हूँ मैं।।



मैंने तुझको तन दिया, शाक का भोजन दिया।

जन्तु सह-जीवन दिया, और खनिज संसाधन दिया।।



मृदा-अग्नि-जल-पवन, निर्मित है तन मेरा मनुज।

अंश तू मेरा ही है, किया धरा नें धारण मनुज।।



तूने मेरे विविध अंगों का अतिशोषण किया।

क्या बताऊँ तूने मुझमें, कितना परिवर्तन… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 17, 2016 at 5:00pm — 5 Comments

वतन में रोग हैं कई दवा ज़रूरी है...............ग़ज़ल इस्लाह के लिए

1222 1212 12 1222

वतन में रोग हैं कई दवा ज़रूरी है।
चलन हो प्रीत का नई फ़िज़ा ज़रूरी है।।

ख़ुदा औ ईश का ये फर्क बस भरम ही है।
ये सच है तू सभी से ये बता ज़रूरी है।।

कहीं जो प्यार हो मिला किसी को जबरन तो।
मुझे भी वो कथा ज़रा सुना ज़रूरी है।।

दिलों की डोरियाँ तो त्याग ही से जुड़ती हैं।
दिलों की नफ़रतें अमाँ मिटा ज़रूरी है।।

घना अँधेरा आसमान पर जो छाया है।
दिया-ए-इश्क़ सबके दर जला ज़रूरी है।।

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 14, 2016 at 2:45pm — 10 Comments

इन्हें रोकना मैं बहुत चाहता हूँ........

इन्हें रोकना मैं बहुत चाहता हूँ।।



ये चोरी छिनैती अपहरण की घटना

बालात्कार और अभिहरण वाली घटना

मगर,

करना कुछ मैं नहीं चाहता हूँ

हाँ !

इन्हें रोकना मैं बहुत चाहता हूँ।।



गर्भस्थ शिशु की हत्या न चाहूँ

स्त्री को उसका अधिकार चाहूँ

मगर,

लड़ना खुद मैं नहीं चाहता हूँ

हाँ !

इन्हें रोकना मैं बहुत चाहता हूँ।।



गरीबों के आँसूं द्रवित कर रहे हैं

भूखे ये बच्चे दुखित कर रहे हैं

मगर,

मरना खुद मैं नहीं चाहता… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 12, 2016 at 10:50pm — 8 Comments

पता घाट पर अब लिखाने चले हम- ग़ज़ल (पंकज मिश्र)

122 122 122 122

कि जश्ने मोहब्बत मनाने चले हम।

जी धड़कन को अपनी सुलाने चले हम।।



कि साँसों ने मेरी मना कर दिया है।

ये तन ख़ाक में अब मिलाने चले हम।।



सफ़र ज़िन्दगी का बहुत हो चूका अब।

लो प्रियतम के दिल में समाने चले हम।।



कि अब तक भ्रमित ही किया बादलों नें।

हाँ भ्रम सारे अब तो मिटाने चले हम।।



कि जिनके लिए नैन प्यासे रहे हैं।

नयन उनके झरनें बनाने चले हम।।



कि अब देखना है हुश्ने हुनर भी।

विरह वेदना क्या बताने चले… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 6, 2016 at 12:27am — 12 Comments

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