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राज़ नवादवी's Blog – June 2012 Archive (75)

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १२

सबों से दिल की मुश्किलों का सबब क्या कहिए 

मगर जब अपनेही पूछें येसवाल तब क्या कहिए



वक्त क्यूँ ढाता है मासूमों पर गजब क्या कहिए

कहाँ जाती है नेकी -ए-कायनात अब क्या कहिए 



रूठकर खो गई जो अज्दाहामे फिक्रेदौराँ में कभी 

होती है अबभी उन निगाहोंकी तलब क्या कहिए 



बहुत एहतियात से हुस्न की नजाकत संभालिए

रहिए फिक्रमंद कि तबक्या और अबक्या…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:11am — 5 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ११

दो घूँट पिला दे साकी तो कोई बात बने 

तेरे गेसुओं से बुन के आज की रात बने



दो किनारे हैं समंदरके कहाँ मिल पाते हैं

कोई सूरत कमरओमेहरकी मुलाक़ात बने 



आओ कर लें दुआ इन्केलाबे तगय्युर की 

अज़- सरे- नौ अब आईन्दा कायनात बने



गर तेरी निगाह है बादा तो दुआ करता हूँ

देखने वालों के सीने में एक खराबात बने



ख़्वाब कामिलहो, मनचाही…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:07am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १०

अब और जी के जहाँमें क्या कर लेंगे 

चलो हम आलमेबालामें नया घर लेंगे



ये कहाँ आ गए, किस मोड़पे हो तुम 

मंजिल नहीं हो तो क्यूँ राहगुज़र लेंगे 



न जाओ तुम मेरी बेफ़िक्रीओमस्ती पे 

होश खो दोगे कभू हम जो संवर लेंगे 



इन परीरूओं के दामसे बच कर रहना 

इक हंसी देंगे तो बदले में जिगर लेंगे 



सब्र करिए कि सब्र का फल मीठा है 

लेंगे…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:04am — 1 Comment

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ९

मकते का शेर दरअसल इस बात के पसेमंज़र कहा गया है कि मेरे ख्यालों की उड़ान, मेरे मिजाजोतबीयत की रुझान और मेरी मआशी (आजीविका से जुडी) ज़िंदगी में कोई मेल नहीं है और मैं अक्सरहा खुद को गलत जगह पाता हूँ. 



खुदा के बंदे हैं खुदा के बन्दों से क्यूँ डरें

आओ प्यारसे एक दूसरेको बाहोंमें भरलें 



अगर तुम मिल जाओ किसी साअत मुझे 

सुबहें भी बस थमी रहें, शामें भी ना ढलें 



ज़मानेको कहाँ नसीब मेरे ख्यालोंकी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:03am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ८

कोई हसीन नज़ारा नज़र को चाहिए 

बसएक दरीचा दीवारोदर को चाहिए 



लो फ़ैल गई किसी जंगलकी आगसी

अफवाहों की तेज़ी खबर को चाहिए 



थोड़ी ज़मीन और थोड़ा आबो रौशनी

बस यही दौलत बेखेशज़र को चाहिए



दो जामा एक चारपाई माथे पर छत

और दो जूनकी रोटी बशरको चाहिए 



क्यूँ दिल को तेरा ख़याल हर साअत

और तेरे मूका दीदार नज़रको चाहिए



तेरी…

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Added by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 12:00am — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ७

ना करो कोई तफरका लड़के और लड़की में 

तुख्मेखल्क बराबर है औरत और आदमी में 



जो तुम मार डालोगे अपनीही कोखका जना

तोफिर क्या फर्क रहेगा इंसान और वहशीमें



बेटियाँ तो गुलपाश हैं गुलिस्ताने कुनबा की

फैलतीहैं ये बनके मुश्केबू हज़ार ज़िन्दगी में



ए ज़हालतमें भटकेहुए बिरादर संभल जाओ

तारीकीएतआस्सुबसे निकल आओ रौशनी में 



बेटेतो बड़े होके बसा लेते हैं अपना घोंसला 

बेटियाँ पोछतीहैं आपके आंसूं खुशीओगमीमें 



न होती मरियम तो कहाँ होते…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:57pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६

ज़माने भर की सताइश भी बहुत कम है 

जोतेरे दहनपे मेरी तारीफ़का एक ख़म है 



इक मुहब्बतथी जावेदां वोभी नहीं नसीब 

इस आलमे फना में क्या दूसरा अलम है 



कहानी नई नहीं अजअज़ल यही दास्ताँहै 

दिल है तो दर्द है, मुहब्बत है तो गम है 



आओ बताएं क्याक्या है बागेमुहब्बत में 

जुल्म है ज़ोर है ज़ब्र है जफा है सितम है



ज़िंदगी एकसी है दर्द एक इन्केशाफ एक 

आँखों को जैसे अश्क गुलों को शबनम है



ये कायनात कोई ख्वाब बीदा परीज़ादी है …

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:54pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ५

कब तलक यूँ ही गली-गली में सताई जाएँगी बेटियाँ 

कभी ज़हेज़ तोकभी इज्ज़तको जलाई जाएँगी बेटियाँ 



कब तलक दुल्हन बननेके लिए गैरतके खरीदारों को 

सजा-धजाके किसी खिलौनेसी दिखाई जाएँगी बेटियाँ



माँ बहन बीवी और बेटी सभी हैं आखिरशतो बेटियाँ

फिर क्यूँ कब्रसे पहले हमल में सुलाई जाएँगी बेटियाँ 



खुदा भी क्या सोचता होगा आलमेअर्श में बैठा- बैठा

अगले खल्कमें सिर्फ और सिर्फ बनाई जाएँगी बेटियाँ 



अगर यूँ ही बेटियों को तआस्सुब से देखा जाएगा तो …

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 11:50pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ४

बहुत कुछ हमने पढ़ा है किताबों में

ज़िंदगी मगर नहीं समातीहै बाबों में

 

इत्मीनान हुए तो बेचैन हो उठे हम

सुकूंकी आदत होगई है इज्तेराबों में

 

बेपर्दा हुएतो पहचान न पाए तुमको

जोभी देखाहै वो देखा है हिजाबों में 

 

तुम गएतो खराबातेइश्क उजड़ गया

नशा अब कहाँ बाकी रहा शराबों में

 

कारिज़ थे जो तेरे होगए हैं कर्ज़दार

न जाने चूक कहाँ होगई हिसाबों में

 

हमें धोखामिला उनसे जोथे मोतेबर

तुम सबात…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 9:00pm — 7 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- ३

भोपाल की इक सुबह...

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भोपाल की इक सुबह...जून का महीना और गर्मी का तेवर चढ़ा हुआ. किसी महानगर सी हलचल का कोई निशाँ नहीं. हाँ, इक छोटे, अलसाए से कस्बे के जीवन की मद्धम धड़कन की अंतर्ध्वनि कानों में आहिस्ता गूंजती, जैसे खामोशी अगर कभी बोलती तो यूँ बोलती. लताएं हल्के हलके अंदाज़ में सुस्त हवाओं के ताल पे डोलतीं, सडकों पे बेज़ार कुत्ते इधर उधर मुंह मारते, रुपहली धूप के गर्म होते साये मकानों पे फैलते- भोपाल की ये तस्वीर अद्भुत है. लोग कब घरों से निकल के दफ्तर…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:13pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- २

महीनों बाद भोपाल के घर में बैठा एकांतप्रस्थ मेरा मन.....

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शाम इक दुल्हन की तरह सजी संवरी महक रही है. डूबते सूरज की लालिमा के घूंघट ने उसे और भी युवा बना दिया है, पीतवर्णी क्षितिज जैसे उसकी सुडौल बाहें हैं, सारी धरा इस दुल्हन की सौम्य काया, नीड़ों को लौटते पक्षियों का कलरव जैसे दुल्हन के आभूषणों की कर्णप्रिय ध्वनियाँ हैं, कोयल की आवाज़, जैसे दुल्हन की पाजेब की खनक. अस्तमान सूर्य के अर्धचन्द्राकार वलय से विकीर्ण…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:10pm — 2 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने- १

दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है...

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दिन किसी पैसेंजर ट्रेन की तरह है जिसपे हर सुबह हम सवार हो जाते हैं. रोज़ का बंधा बंधाया सफर सुब्ह से शाम तक का और फिर वापिस अपने अपने घरों में. सुबह की निकली ट्रेन दोपहर के स्टेशन आ चुकी है, कुछ थकी थकाई, सांसे थोड़ी ऊपर नीचे, चेहरे पे सफर की धूल और आँखों में रुकते-दौड़ते रहने की थकान. लोग अपने अपने मुकामों के प्लेटफोर्म पे उतर कर न जाने क्या ढूँढते रहते हैं, क्या कदो-काविश (भाग-दौड़) है, क्या कारोआमाल…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 6:00pm — No Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३

हज़ार जिगर को तेरे मिलने की चाहत हो

काम क्या बने जब न अपनी किस्मत हो

 

मैंने अक्सरहा रोटी और कपड़ों से पूछा है

ज़रूरतोंके दाफिएके लिए कितनी दौलतहो

 

क्यूँ अभीसे ही तू सूफियाना हुआ जाता है

ऐ दिल तुझे कोई ख्वाहिश कोई हसरत हो

 

हसरतों को लूटकर करते हो मिजाजपुरसी

दुआ है तुझेभी जूनूँ हो दर्द हो मुहब्बत हो 

 

लो ऐलान करदिया कि आगए हैं बाज़ारमें

ज़िंदगी तवाइफ़ है मेरी, अबतो इनायत हो

 

ज़िंदगी भर रहे…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:26pm — 4 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- २

जिन्दगी है उलझी तेरे तुर्रा -ए-तर्रार की तरह

और इतनी साफ़ कि पढ़लो अखबार की तरह

 

एहसासेतवाफ़ेरोजोशब ये सोना- जागना अपना

भटकते हैं दर- दर तम्सीलके किरदारकी तरह   

 

आना ही था तो आ जाता जैसे नींद रातों को

तू ज़िंदगीमें क्यूँ आया फ़स्लेबेइख्तेयारकी तरह

 

तुझसे बिछड़नाभी हो गोया कोई कारेखुदकुशी

और तुझसे इश्क निभानाभी वस्लेनारकी तरह

 

दर्दकी दास्ताँ रहगई खतोंकी तहरीर की तरह

प्यार हमारा टूट गया मुंहबोले इकरारकी…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:06pm — 6 Comments

राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- १

कुछ बातों की कोई इम्तेहा नहीं होती

होती है बस, कमोबेश वफ़ा नहीं होती

 

करो बहबूदीकी तमन्ना और भूलजाओ

जिसमें हो एहसान वो दुआ नहीं होती  

 

माँ माँ होतीहै लहुलुहान होकर भी माँ

बच्चोंके लिए कभी आब्लापा नहींहोती

 

गरीबों केलिए ज़्यादा गिज़ा नहीं होती

अमीरों केलिए भूखकी दवा नहीं होती

 

अगर न होती भूल आदमोहव्वा से तो

रंगभरी और दुःखभरी दुनिया नहींहोती

 

काश कि औरत न होती रागिबेपैदाइश

और…

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Added by राज़ नवादवी on June 26, 2012 at 5:00pm — 3 Comments

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