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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ३

हज़ार जिगर को तेरे मिलने की चाहत हो

काम क्या बने जब न अपनी किस्मत हो

 

मैंने अक्सरहा रोटी और कपड़ों से पूछा है

ज़रूरतोंके दाफिएके लिए कितनी दौलतहो

 

क्यूँ अभीसे ही तू सूफियाना हुआ जाता है

ऐ दिल तुझे कोई ख्वाहिश कोई हसरत हो

 

हसरतों को लूटकर करते हो मिजाजपुरसी

दुआ है तुझेभी जूनूँ हो दर्द हो मुहब्बत हो 

 

लो ऐलान करदिया कि आगए हैं बाज़ारमें

ज़िंदगी तवाइफ़ है मेरी, अबतो इनायत हो

 

ज़िंदगी भर रहे मसरूफ बेकारके कामों में

शायद साअतेमौत ज़िंदगी भरकी फुर्सत हो

 

इश्कका रोग बेइलाज है सदी-दर-सदी देखा

शायद नए ज़मानेमें इस मर्ज़की हिकमतहो 

 

देखकर तेरा जल्वा साँसें बेदम हो जाती हैं

तेरे सामने अब किस रफ्ताहोशमें हर्कत हो

 

आओ ज़माने को बदल दें बज़रियाएअवाम

न सही जिस्म में पर इरादों में ताक़त हो

 

बर्गेगुल उड़ उड़के क़दमोंमें गिरके कहते थे

हम आपकी कदमपोशी करलेंजो इजाज़तहो

 

राज़ रहे हम अजनबियोंकी तरह अपनों में

इक फ़कीरने तजवीज़दी जज़बेमें ग़ुरबत हो

 

© राज़ नवादवी

भोपाल अपराह्न्न १५.५४, २५/०६/२०१२

 

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Comment

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Comment by राज़ नवादवी on June 28, 2012 at 10:23am

धन्यवाद भाई अरुण एवं उमाशंकर जी जो आपने पढाने के ज़हमत उठाई! 

- राज़ नवादवी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by अरुण कुमार निगम on June 27, 2012 at 11:56pm

खूबसूरत हास्य गज़ल

Comment by राज़ नवादवी on June 27, 2012 at 9:55am

शुक्रिया आपका राज! 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 27, 2012 at 9:13am

मैंने अक्सरहा रोटी और कपड़ों से पूछा है

ज़रूरतोंके दाफिएके लिए कितनी दौलतहो

 

क्यूँ अभीसे ही तू सूफियाना हुआ जाता है

ऐ दिल तुझे कोई ख्वाहिश कोई हसरत हो

 क्या बात है ...क्या बात है  बहुत उम्दा ग़ज़ल 

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