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KALPANA BHATT ('रौनक़')'s Blog (122)

लड़ाई (कविता)

एक दिन कुछ अलग हुआ

समुन्दर और आकाश के बीच

आकाश को देख समुन्दर चिल्लाया

मेरी जगह तुम आ जाओ

यह बात सुनकर आकाश मुस्काया

बोला ठीक है करलो ये प्रयास

सारी मछलियां गभरायीं

अब पंख कहाँ से लायें

चिड़िया उनको देख मुस्काईं

जैसे हम जल में तैरेंगे

तुम सब हवा में उड़ जाना

यह सब देख धरा मुस्काई

दोनों की कैसे खत्म करूँ लड़ाई

पूछा उसने समुन्दर से

दादा बोलो मैं कहाँ जाऊँ

वन , जंगल कहाँ ले जाऊँ?

आकाश से भी पूछा उसने

दिन और रात का… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 21, 2016 at 7:33pm — 7 Comments

आकाश ( कविता)

यह आकाश सबको बुलाता

दूर से ही सबको लुभाता

अपने में बहुत कुछ समेटे

आकर्षित खुद ही बन जाता ।

यह आकाश सबको बुलाता ।

बादलों में कभी छुप जाता

रंग बदलता ,मेघ बरसाता

चाँद सितारों के संग रहता

धरा को अपनी छाँव देता

कभी इठलाता कभी बिखरता

यह आकाश सबको बुलाता

इंद्रधनुष की चादर ओढ़े

जब कभी भी है यह आता

कहीं कोई तराना है गाता

करता है अठखेलियां बहुत

कभी आग यह बरसाता ।

ख्वाबों को सजाता

आकाश अपना हो जाता ।



मौलिक एवं… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 16, 2016 at 9:13pm — 4 Comments

आईना (कविता)

कहतें हैं सच बोलता है आईना
अपने आपकी पहचान करवाता है

देखते हैं जो बार बार इसमें
क्या रंग बदलता है आईना !

सज संवर कर देखें गर इसमें
खूबसूरत मूर्त दिखाता है आईना

गर पहचानने के लिए देखें इसमें
अहँकारी कर पुकारता है आईना ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 15, 2016 at 5:16pm — 3 Comments

जीवन काल (कविता)

वक़्त होता है सारथी
पथ होता जीवन काल

राह दिखाते चाँद सूरज
मनुष्य हो जाते बेहाल

डम डम डम डम बजाते जो डमरू
क्या बन जाओगे महाकाल

पृथ्वी के जो एक कण से उपजे
अहँकार न बनेगी कभी ढ़ाल ।

नहीं कोई यहाँ पूर्ण पुरुषोत्तम
बनाते फिर भी कई पाल

आईने के सामने खड़े हो जाएँ
तो दिख जाये स्वयं की डाल ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 6, 2016 at 10:30am — 4 Comments

चमक धमक (कविता)

चमक धमक

चमक धमक को समझ बैठे
तरक्की की सीढियाँ
चलते रहे चका चौंध के पीछे
इंसानियत को भी गवां बैठे ।


तेज़ रौशनी में छुपे अँधेरे को
समझ न सके पैर डगमगा गए
लोटने का रास्ता भी न मिला
खुद ही खुद को गवां बैठे ।


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 26, 2016 at 8:40pm — 2 Comments

बचपन (कविता)

बचपन



आज के जीवन शैली में

बचपन कहीं नहीं हैं

अल्हड़पन नहीं है

मासूमियत कहीं खो गयी है ।

मोबाइलों ने छीन ली है

खुले मैदानों की चिल्लाहट

टीवी कॉम्प्यूटर चल पड़े हैं

गुल्ली डंडे की जगह पर

खेल हुए है क़ैद स्कूलों में

उनके लिए ही ट्रॉफी जितने

कॉलेज में राजनीती की निति

बच्चों के मन के गलियारों में ।

बचपन बैठा है पिंजरों में

अपने ख्वाबों की उड़ान भरने को ।

खुले आकाश से बातें करता

अपने वजूद को तलाशता ।

बचपन शायद फिर…

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 22, 2016 at 11:21am — 9 Comments

सफ़र (कविता)

सफ़र

सोचा जब भी
सफ़र कर लूँ
शुद्ध हवा खा लूँ
पहाड़ो के बीच
किसी झरने के करीब
एक डेरा डाल लूँ
ख्वाबों में बादल
आने लगे ।
उमड़ते घुमड़ते एहसास
छू रहे थे बादल
पहाड़ों के शिखर को
हलके से झांक रहा था रवि
नर्म मुलायम मखमली चादर
डेरे के पास शर्मा रही थी
जो रवि को देख पुल्लकित
हो खिल गयी
और मैं इस सफ़र
का आनंद ले रही थी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 15, 2016 at 5:50pm — 4 Comments

माला

माला

छल, कपट ,धोखे के मोतियों
की माला ही पहना दो ।
इसे पहनकर एहसास ही
कर लूँगी ।
अपने दिल के करीब भी
रख लूँगी ।
सज जाऊँगी पूर्णतः ।
दर्द शायद कम हो जाये तुम्हारा
जीत का जश्न
फिर तुम मना लेना ।
आऊँगी संग तुम्हारे
उसी माला को पहन
रहूँगी साथ तब भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 13, 2016 at 9:52am — 2 Comments

सर्द हवा (कविता)

सर्द हवा

इन सर्द हवाओं में
घुली हुई हैं यादें
वो वादियाँ पहाड़ों की
बर्फीली चादर ओढ़े
चले थे कभी
कदम दो कदम
साथ हुई थीं
बर्फीली नदी के धार
ठंडे पानी में
नहाने की ज़िद्द
छोटे छोटे कंकड़ पत्थर
रंग बी रंगी किनारे पर
चमकते थे
श्वेत पानी के बीच ।
उस पर से प्यार का एहसास
तुम्हारे करीब होने का आभास
याद आते है
सर्द हवा के झोंके
आज भी ।
लगता है करीब हो
तुम आज भी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 12, 2016 at 3:00pm — 6 Comments

ज़िन्दगी (कविता)

ज़िन्दगी

सोचा थोडा खेल लें
ज़िन्दगी मिली है
सो थोडा खेल लें
समय चलेगा अपनी चाल
समय के मोहरे बन
थोडा खेल लें ।
कभी पहाड़ों पर
चढ़ जाएँ
कभी बादलों पर घूम आयें
कभी मिटटी के बुत बन जाएँ
कभी माली बन
बगवान सवाँर ले।
कभी महके गुलाब की तरह
कभी काँटा बन चुभ जाएँ ।
ज़िन्दगी है
तो खेल है
खेलते रहे खिलाड़ी बन
ज़िन्दगी शायद ज़ी जाएँ ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 11, 2016 at 9:30pm — 2 Comments

कितना सरल होता है कुछ कहना

कितना सरल होता है कुछ कहना



कहना है कुछ ?

हाँ , तो कह दो न

कहना ही तो है ।



जुबाँ से ही तो कहना होता है न

बिना सोचे समझें भी कह सकते है

पूछे कोई तो कहना

जुबाँ फ़िसल गयी भाई ।



कहना किसीसे कभी कभी

चुभ जाता है

कभी किसीसे कुछ कहने पर

वो खुश हो जाता है ।



कहा -सुनी हो जाये

तो बढ़ जातीं हैं दूरियाँ कभी ।

कभी सुनने के लिए

कान तरस जाते हैं ।



कहो जो कहना चाहते हो

पर सुनो भी तो

तो दूजा कहना… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 7, 2016 at 5:00pm — 3 Comments

अजनबी गलियाँ

अजनबी गलियाँ

चलते चलते
महसूस हुआ
गलियाँ बेगानी लगीं
देखते रहे
इधर उधर
नज़रे बैमानी लगीं
थे बहुत अपने यहाँ
पर सभी बेगाने लगे
खोजा बहुत उन सबको
शायद कोई अपना लगे ।
तंग गलियों में
चिपके हुए घरों के बीच
बस देखती रही यूँही ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 5, 2016 at 6:30pm — 6 Comments

पहरे

पहरे

बढ़ा लो पहरे और
फर्क क्या पड़ना है?
आतंक के माहौल में
आगे फिर भी बढ़ना है |
ठानी है जो तुमने करो
मैं अपना कर्तव्य निभाऊंगी
वक़्त आया तो
निडर होकर
देश पर जान वारूँगी।
दर्द इतना झेला है
अब न तुम मुझको डराओ
गोली बारूद की बिसात पर
मौत बुलाने से बाज आओ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 23, 2016 at 10:30am — 5 Comments

बादल बने एहसास

उमड़ते घुमड़ते

रहे एहसास

उन लहरों की तरह

आकाश से सागर तक

फ़ासले तय करते गये

हर हवा के झोंके

ने पत्तों की उड़ाया कभी

टकराये पेड़ से

चट्टानों से

बहे झरने की तरह कभी

तिनके की तरह तैरते रहे

पानी में अपने अस्तित्व

के लिए लड़ते रहे

उन लहरों से ।



कभी हवा से उड़ने लगे

एक पतंग बन

खुले नभ में

अपने ख्वाबों को

उंचाईयों पर पहुँचाने के लिए

हंसते हुए लहराते हुए ।



बरस पड़े आँसू बन कभी

अपनी यादों के… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 12, 2016 at 10:00pm — 5 Comments

शाख़ पर चिड़िया

रोज़ देखतीं हूँ

शाख पर बैठी हुई

चिड़ियाओं को



जो बैठती हैं

एक शाख़ पर

कलरव करती हैं ।



भूख लगने पर

पंखों को फ़ैलाए

उड़ जाती हैं ।

अपने लिए

दाना ढूंढने ।



समय आने पर

बीनती हैं तिनके

अपने लिए

एक घरौंदा बनाती हैं ।





करती हैं परवरिश

विहग-सुवन की ।



करतीं हैं इन्तज़ार

समय का

पंख आ जाने पर

जो कल एक

बच्चा था

उड़ जाता है

ऊँचे गगन में

उड़ जाता है

अपनी… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 11, 2016 at 8:30pm — 11 Comments

एक एहसास (कविता )

एक एहसास
मीठा सा
इंतज़ार दे गया ।

प्यार का
विश्वाश का
तड़प का
अधिकार का ।


एक एहसास
प्यारा सा
प्यार जता गया

आँखों से आँखों का मिलना
आत्मा की पुकार
एक ख़्वाब जगा गया ।

प्यारा सा चेहरा
अपनी और खींचता है
ग्रीष्म में सावन
का एहसास
तुम्हारा प्यार दे गया ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 10, 2016 at 7:51pm — 10 Comments

ज़िन्दगी (कविता)

छोटी छोटी सी खुशियां

भर देती हैं  झोली

हंसी ख़ुशी दिन बीते जब

ज़िन्दगी लगती  हमजोली



जीवन के है रंग निराले

जो  खेले आँख मिचोली

एक आये जब दूजा जाए  

ज़िन्दगी लगती मखमली |



लेकर बहार आती है ज़िन्दगी

प्यार से जब सींचि जाती है

कड़वाहट का ज़हर भी पीती

अपना असर दिखाती है |



अपनों के बीच अपनों के संग

प्यार को पाती है ज़िन्दगी

प्यार गर न मिले तो

सूखे पत्तों की तरह मुरझा जाती है ज़िन्दगी |

मौलिक एवं…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 6, 2016 at 10:30pm — 10 Comments

नयन भी तरस गये ( कविता)

छम छम करती हुई
आयी जब वो छत पर
चाँद भी जैसे ठहर सा गया
यौवन उसका देखकर
श्वेत वस्त्रों में लिपटी हुई
कुछ शरमाई कुछ अलसायी
देख रही थी बादलों को
लगा मानो कह रही हो
बुला दो मेरे प्रियतम को
देख उसको बादल भी बरस पड़े
पीड़ा थी जुदाई की
या थी प्रीत की जीत
चाँद भी जा चूका था
बादल भी बरस गये
पिया के दरस को
नयन भी तरस गये |

मौलिक एवं अप्रकाशित


Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on October 5, 2016 at 5:20pm — 10 Comments

गुमान (कविता )

क्यों करते

खुदकी वाह वाही

होती उसकी

फिर बुराई

माना बहुत कुछ

जान गये हो

खुद को भी

पहचान गये हो

न इतना

गुमान करो

खुद का खुद

सम्मान हरो

अच्छे हो

जानो खुदको

इन्सां हो

मानो खुदको ।

चलो भले

अपनी ही चाल

न खींचों

दूसरों की खाल

धीरे धीरे

चलना है

दौड़ना नहीं

बस चलना है ।

जय हो जय हो

का नारा छोड़ो

स्व तारीफ़ से

नाता तोडो ।

एक दिन

पेड़ क्या

बन जाओगे

ज़मीन…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 29, 2016 at 10:30pm — 12 Comments

ख़ामोशी ( कविता )

क्यों खामोश हो

कुछ बोलते भी नहीं

कुछ कहते भी नहीं

कुछ सुनते भी नहीं



वो देखो वहाँ

क्षितिज के किनारे

आकार ले रहा है

प्यार बादलों में



वो देखो  वहाँ

उन लहरों को

जो कर रही है बयां

प्यार चट्टानों से



वो देखो वहाँ

उन परिंदो को

जो उड़ते हुए भी

कर रहे बातें बादलों से



वो देखो वहाँ

रंग बदलते आस्मां को

किस तरह रंग बदलता है

बिलकुल तुम्हारी ही तरह



गुलाबी फ़ज़ाओं…

Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 22, 2016 at 3:00pm — 10 Comments

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