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कितना सरल होता है कुछ कहना

कितना सरल होता है कुछ कहना

कहना है कुछ ?
हाँ , तो कह दो न
कहना ही तो है ।

जुबाँ से ही तो कहना होता है न
बिना सोचे समझें भी कह सकते है
पूछे कोई तो कहना
जुबाँ फ़िसल गयी भाई ।

कहना किसीसे कभी कभी
चुभ जाता है
कभी किसीसे कुछ कहने पर
वो खुश हो जाता है ।

कहा -सुनी हो जाये
तो बढ़ जातीं हैं दूरियाँ कभी ।
कभी सुनने के लिए
कान तरस जाते हैं ।

कहो जो कहना चाहते हो
पर सुनो भी तो
तो दूजा कहना चाहता है ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 9:41am

आदरनीया कल्पना जी , व्यवहारिक गम्भीर रचना के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 9, 2016 at 5:42pm
आदाब जनाब समर साहब । तहे दिल से शुक्रिया सर ।
Comment by Samar kabeer on November 9, 2016 at 5:20pm
मोहतरमा कल्पना भट्ट साहिबा आदाब,अच्छी लगी आपकी ये कविता भी,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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