लेख:
हमारे सोलह संस्कार
संजीव 'सलिल'
*
अर्थ:
'संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणकानेन, दोषपनयेन वा' अर्थात गुणों के उत्कर्ष तथा दोषों के अपकर्ष की विधि ही संस्कार है।
शंकराचार्य के ब्रम्ह्सूत्र के अनुसार किसी वस्तु, पदार्थ या आकृति में गुण, सौंदर्य, खूबियों को आरोपित करना / बढ़ाना तथा उसकी त्रुटियों, कमियों, दोषों को हटाने / मिटने का नाम संस्कार है।
संस्कृत भाषा में प्रयुक्त क्रिया (धातु) 'कृ' के पूर्व सम उपसर्ग तथा पश्चात् 'आर' कृदंत के संयोग से बने इस शब्द…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 16, 2012 at 10:09pm — 1 Comment
दोहा सलिला:
सूत्र सफलता का सरल
संजीव 'सलिल'
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सूत्र सफलता का सरल, रखें हमेशा ध्यान।
तत्ल-मेल सबसे रखें, छू लें नील वितान।।
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सही समन्वय से बने, समरस जीवन राह।
सुख-दुःख मिलकर बाँट लें, खुशियाँ मिलें अथाह।।
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रहे समायोजन तभी, महके जीवन-बाग़।
आपस में सहयोग से,…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 15, 2012 at 8:00pm — 6 Comments
मानव मणि:
नर से नारायण - स्वामी विवेकानंद
संजीव 'सलिल'
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'उत्तिष्ठ, जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत।'
'उठो, जागो और अपना लक्ष्य प्राप्त करो।'
'निर्बलता के व्यामोह को दूर करो, वास्तव में कोई दुर्बल नहीं है। आत्मा अनंत, सर्वशक्ति संपन्न और सर्वज्ञ है। उठो! अपने वास्तविक रूप को जानो…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 14, 2012 at 4:51pm — 4 Comments
मुक्तिका;
बेवफा से ...
संजीव 'सलिल'
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बेवफा से दिल लगा के, बावफा गाफिल हुआ।
अधर की लाली रहा था, गाल का अब तिल हुआ।।
तोड़ता था बेरहम अब, टूटकर चुपचाप है।
हाय रे! आशिक 'सलिल', माशूक का क्यों दिल हुआ?
कद्रदां दुनिया थी जब तक नाश्ते की प्लेट था।
फेर लीं नजरों ने नजरें, टिप न दी, जब बिल हुआ।।
हँसे खिलखिल यही सपना साथ मिल देखा मगर-
ख्वाब था दिलकश, हुई ताबीर तो किलकिल हुआ।।
'सलिल' ने माना था भँवरों को कँवल का मीत पर-
संगदिल…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 11, 2012 at 7:59pm — 8 Comments
शब्द-तर्पण:
माँ-पापा
संजीव 'सलिल'
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माँ थीं आँचल, लोरी, गोदी, कंधा-उँगली थे पापाजी.
माँ थीं मंजन, दूध-कलेवा, स्नान-ध्यान, पूजन पापाजी..
*
माँ अक्षर, पापा थे पुस्तक, माँ रामायण, पापा गीता.
धूप सूर्य, चाँदनी चाँद, चौपाई माँ, दोहा पापाजी..
*
बाती-दीपक, भजन-आरती, तुलसी-चौरा, परछी आँगन.
कथ्य-बिम्ब, रस-भाव, छंद-लय, सुर-सरगम थे माँ-पापाजी..
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माँ ममता, पापा अनुशासन, श्वास-आस, सुख-हर्ष अनूठे.
नाद-थाप से, दिल-दिमाग से, माँ छाया तरु थे…
Added by sanjiv verma 'salil' on October 6, 2012 at 3:01pm — 9 Comments
सत्य जानकर नहीं मानता, उहापोह में मन जी लेता
अमिय चाहता नहीं मिले तो, खूं के आँसू ही पी लेता..
अलकापुरी न जा पायेगा, मेघदूत यह ज्ञात किन्तु नित-
भेजे पाती अमर प्रेम की, उफ़ न करे लब भी सी लेता..
सुधियों के दर्पण में देखा चाह चदरिया बिछी धुली है...
आसों की…
Added by sanjiv verma 'salil' on July 19, 2012 at 9:00pm — 8 Comments
दोहा सलिला:
संजीव 'सलिल'
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कथ्य, भाव, रस, शिल्प, लय, साधें कवि गुणवान.
कम न अधिक कोई तनिक, मिल कविता की जान..
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मेघदूत के पत्र को, सके न अब तक बाँच.
पानी रहा न आँख में, किससे बोलें साँच..
ऋतुओं का आनंद लें, बाकी नहीं शऊर.
भवनों में घुस कोसते. मौसम को भरपूर..
पावस ठंडी ग्रीष्म के. फूट गये हैं भाग.
मनुज सिकोड़े नाक-भौं, कहीं नहीं अनुराग..
मन भाये हेमंत जब, प्यारा लगे बसंत.
मिले शिशिर से जो गले,…
Added by sanjiv verma 'salil' on July 6, 2012 at 10:20am — 5 Comments
गीत:
लोकतंत्र में...
संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
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संसद में गड़बड़झाला है.
नेता के सँग घोटाला है.
दलदल मचा रहे दल हिलमिल-
व्यापारी का मन काला है.
अफसर, बाबू घूसखोर
आशा न शेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश…
Added by sanjiv verma 'salil' on June 23, 2012 at 8:10am — 11 Comments
दोहा कहे मुहावरा:
खोल देखकर आँख
संजीव 'सलिल'
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रवि-किरणें टेरें तुझे, देख खोलकर आँख.
आलस तज उठ जा 'सलिल', लग न जाए फिर आँख..
*
आँख मिलाकर आँख से, डाल आँख में आँख.
खुली आँख सपने दिखे, खुली रह गयी आँख..
*
आँख बंदकर आँख को, राह दिखाये आँख.
हाथ थामकर आँख का, गले लगाये आँख..
*
बाधा से टकरा पुलक, घूर मिलाकर आँख.…
Added by sanjiv verma 'salil' on June 13, 2012 at 9:15am — 7 Comments
गीत:
थिरक रही है...
संजीव 'सलिल'
*
थिरक रही है,
मृदुल चाँदनी थिरक रही है...
*
बाधाओं की चट्टानों पर
शिलालेख अंकित प्रयास के.
नेह नर्मदा की धारा में,
लहर-भँवर प्रवहित हुलास के.
धुआँधार का घन-गर्जन रव,
सुन-सुन रेवा सिहर रही है.
मृदुल चाँदनी थिरक रही है...
*
मौन मौलश्री ध्यान लगाये,
आदम से इन्सान बनेगा.
धरती पर रहकर जीते जी,
खुद अपना भगवान गढ़ेगा.
जिजीविषा सांसों की अप्रतिम
आस-हास बन बिखर रही है.
मृदुल चाँदनी…
Added by sanjiv verma 'salil' on June 9, 2012 at 11:59am — 6 Comments
दोहा मुक्तिका:
पल पल हो मधुमास...
संजीव 'सलिल'
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आसमान में मेघ ने, फैला रखी कपास.
कहीं-कहीं श्यामल छटा, झलके कहीं उजास..
*
श्याम छटा घन श्याम में, घनश्यामी आभास.
वह नटखट छलिया छिपे, तुरत मिले आ पास..
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सुमन-सुमन में 'सलिल' को, उसकी मिली सुवास.
जिसे न पाया कभी भी, किंचित कभी उदास..
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उसकी मृदु मुस्कान से, प्रेरित सफल प्रयास.
कर्म-धर्म का मर्म दे, अधर-अधर को हास.
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पूछ रहा मन मौन वह, क्यों करता परिहास.
क्यों दे पीड़ा उन्हीं को,…
Added by sanjiv verma 'salil' on June 6, 2012 at 9:40am — 6 Comments
मुक्तिका:
मुस्कुराते रहो...
संजीव 'सलिल'
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मुस्कुराते रहो, खिलखिलाते रहो
स्वर्ग नित इस धरा पर बसाते रहो..
*
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..
*
बाग़ से बागियों से न दूरी रहे.
फूल बलिदान के नव खिलाते रहो..
*
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
*
नफरतें दूर कर प्यार के, इश्क के
गीत, गज़लें 'सलिल' गुनगुनाते रहो..
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 5, 2012 at 7:34am — 9 Comments
मुक्तिका:
दिल में दूरी...
संजीव 'सलिल'
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दिल में दूरी हो मगर हाथ मिलाये रखना.
भूख सहकर भी 'सलिल' साख बचाये रखना..
जहाँ माटी ही न मजबूत मिले छोड़ उसे.
भूल कर भी न वहाँ नीव के पाये रखना..
गैर के डर से न अपनों को कभी बिसराना.
दर पे अपनों के न कभी मुँह को तू बाये रखना..
ज्योति होती है अमर तम ही मरा करता है.
जब भी अँधियारा घिरे आस बचाये रखना..
कोई प्यासा ले बुझा प्यास, मना मत करना.
जूझ पत्थर से सलिल धार बहाये…
Added by sanjiv verma 'salil' on May 22, 2012 at 10:00am — 10 Comments
Added by sanjiv verma 'salil' on May 1, 2012 at 7:35am — 4 Comments
दोहा सलिला:
अंगरेजी में खाँसते...
संजीव 'सलिल'
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अंगरेजी में खाँसते, समझें खुद को श्रेष्ठ.
हिंदी की अवहेलना, समझ न पायें नेष्ठ..
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टेबल याने सारणी, टेबल माने मेज.
बैड बुरा माने 'सलिल', या समझें हम सेज..
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जिलाधीश लगता कठिन, सरल कलेक्टर शब्द.
भारतीय अंग्रेज की, सोच करे बेशब्द..
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नोट लिखें या गिन रखें, कौन बताये मीत?
हिन्दी को मत भूलिए, गा अंगरेजी गीत..
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जीते जी माँ ममी हैं, और पिता हैं डैड.
जिस भाषा में…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 23, 2012 at 7:10am — 15 Comments
मुक्तिका: संजीव 'सलिल'
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लफ्ज़ लब से फूल की पँखुरी सदृश झरते रहे.
खलिश हरकर ज़िंदगी को बेहतर करते रहे..
चुना था उनको कि कुछ सेवा करेंगे देश की-
हाय री किस्मत! वतन को गधे मिल चरते रहे..
आँख से आँखें मिलाकर, आँख में कब आ बसे?
मूँद लीं आँखें सनम सपने हसीं भरते रहे..
ज़िंदगी जिससे मिली करते उसीकी बंदगी.
है हकीकत उसी पर हर श्वास हम मरते रहे..
कामयाबी जब मिली…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 19, 2012 at 7:30am — 5 Comments
कवि और कविता १. : प्रो. वीणा तिवारी
Added by sanjiv verma 'salil' on April 14, 2012 at 6:00pm — 1 Comment
मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
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लिखा रहा वह, हम लिखते हैं.
अधिक देखते कम लिखते हैं..
तुमने जिसको पूजा, उसको-
गले लगा हमदम लिखते हैं..
जग लिखता है हँसी ठहाके.
जो हैं चुप वे गम लिखते हैं..
तुम भूले सावन औ' कजरी
हम फागुन पुरनम लिखते हैं..
पूनम की चाँदनी लुटाकर
हँस 'मावस का तम लिखते हैं..
स्वेद-बिंदु से श्रम-अर्चन कर
संकल्पी परचम लिखते हैं..
शुभ विवाह की रजत जयन्ती
मने- ज़ुल्फ़ का ख़म…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 4, 2012 at 8:30pm — 8 Comments
गोपी गीत दोहानुवाद
संजीव 'सलिल'
*
श्रीमदभागवत दशम स्कंध के इक्तीसवें अध्याय में वर्णित पावन गोपी गीत का भावानुवाद प्रस्तुत है.
धन्य-धन्य है बृज धरा, हुए अवतरित श्याम.
बसीं इंदिरा, खोजते नयन, दरश दो श्याम..
जय प्रियतम घनश्याम की, काटें कटें न रात.
खोज-खोज हारे तुम्हें, कहाँ खो गये तात??
हम भक्तन तुम बिन नहीं, रातें सकें गुजार.
खोज रहीं सर्वत्र हम, दर्शन दो बलिहार..
कमल सरोवर…
Added by sanjiv verma 'salil' on February 26, 2012 at 12:02pm — No Comments
कुछ दोहे श्रृंगार के
संजीव 'सलिल'
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गाल गुलाबी हो गये, नयन शराबी लाल.
उर-धड़कन जतला रही, स्वामिन हुई निहाल..
पुलक कपोलों पर लिखे, प्रणय-कथाएँ कौन?
मति रति-उन्मुख कर रहा, रति-पति रहकर मौन..
बौरा बौरा फिर रहे, गौरा लें आनंद.
लुका-छिपी का खेल भी, बना मिलन का छंद..
मिलन-विरह की भेंट है, आज वाह कल आह.
माँग रहे वर प्रिय-प्रिया, दैव न देना डाह..
नपने बौने हो गये, नाप न पाये चाह.
नहीं सके विस्तार लख, ऊँचाई या थाह..
आधार चाहते…
ContinueAdded by sanjiv verma 'salil' on February 1, 2012 at 10:30pm — 3 Comments
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