सामयिक लघुकथा:
ढपोरशंख '
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कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.
सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.
Comment
सत्यनारायण जी
आपका बहुत-बहुत आभार.
आदरणीय आचार्य जी, सामायिक, तुलनात्मक और लघुकथा के माध्यम से प्रेरक व्यंग है. सादर बधाई.
राम शिरोमणि जी, संदीप जी
लघुकथा आपको रुची तो मेरा लेखन कर्म सार्थक हो गया.
सौरभ जी, राजेश जी, प्राची जी, अशोक जी, आरती जी, बृजेश जी, तुषार जी, संदीप जी, वेदिका जी
आपकी गुणग्राहकता और संवेदनशीलता को नमन.
आदरणीय संजीव जी,
सामयिक लघुकथा के लिए बहुत बहुत बधाई..
इस कथा के गठन और शिल्प की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है.
कथा का शीर्षक बिलकुल चुन कर रखा गया है... दो राहुल की तुलना का ये सार्थक ख्याल गज़ब का लगा.
पुनः बधाई .सादर.
आदरणीय संजीव ’सलिल’ जी !
नमस्कार!
बहुत सटीक व्यंग ... बरबस ही कथा के अंत में मुस्कान आजाती है।
वाह ...
शुभकामनायें !!!
मजेदार बात ये है कि जिन दो राहुलो की तुलना हो रही है उनमे कोई तुलना ही नहीं है फिर भी लघु कथा तो अपनी बात कह गयी। वह मज़ा आ गया पढ़कर
लघु कथाकार जगदीश कश्यप की याद आती है जब वो नागरिक लघु कथा संग्रह में लघु कथा के तरीके बताते हैं
आदरणीय सलिल जी चंद शब्दों में युगों का तुलनात्मक विश्लेषण कर एक सटीक व्यंग्य द्वारा बहुत बड़ी बात कही लघु कथा शीर्षक के साथ पूर्णतः न्याय कर रही है|बधाई आपको
प्रणाम सर..अति सुन्दर और प्रेरक लघुकथा पर बधाई स्वीकारें ..
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