चंद द्विपदियाँ;
संजीव 'सलिल'
*
जब तक था दूर कोई इसे जानता न था.
तुमको छुआ तो लोहे से सोना हुआ 'सलिल'.
*
वीरानगी का क्या रहा आलम न पूछिए.
दिल ले लिया तुमने तभी आबाद यह हुआ..
*
जाता है कहाँ रास्ता? कैसे बताऊँ मैं??
मुझ से कई गए न तनिक रास्ता हिला..
*
बस में नहीं दिल के, कि बस के फिर निकल सके.
परबस न जो हुए तो तुम्हीं आ निकाल दो..
*
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. ..
***
Comment
bhai sahab aap to badia likhate he kintu aap jese logo ka dayit banta hai ki aap ham jese navodit logo ki rachna bhi pade v apni ray sujhav de .
जो दिल जला है उसके दिल से दिल मिला 'सलिल'
कुछ आग अपने दिल में लगा- जग उजार दे.. .. सुन्दर भाव, भाई श्री संजीव सलिल जी,
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सादर, आदरणीय .. .
सौरभ बिना 'सलिल' को, कोई पूछता नहीं.
पाई सुरभि गुलाब जल, अभिनव ये हो गया..
फुटकर-फुटकर द्विपदियाँ क्या-क्या न कह गयीं !
आचार्यवर, मजा आ गया. मुझे आपकी पहली द्विपदी देर तक बाँधे रही. सादर बधाइयाँ.
आदरणीय श्री आचार्यवर बहुत सुन्दर सारगर्भित रचना -
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