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गीत: लोकतंत्र में... संजीव 'सलिल'

गीत:
लोकतंत्र में...
संजीव 'सलिल'
*
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
संसद में गड़बड़झाला है.
नेता के सँग घोटाला है.
दलदल मचा रहे दल हिलमिल-
व्यापारी का मन काला है.
अफसर, बाबू घूसखोर
आशा न शेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*

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Comment

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Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on June 25, 2012 at 7:31pm

इस अद्भुत सामायिक मारक गीत के लिए सादर बधाई और नमन स्वीकारें आदरणीय आचार्यवर....

Comment by sanjiv verma 'salil' on June 25, 2012 at 6:50pm

राजेश जी, प्रदीप जी, गौरव जी, सौरभ जी, भावेश जी, आशीष जी , सुरेन्द्र जी, योगी जी, अलबेला जी आपकी गुणग्राहकता को नमन। मैं गायन कला से अनभिज्ञ हूँ. संगीत के कोइ जानकर बन्धु  इसे स्वर दे सकें तो भी अलबेला जी की चाह पूरी हो सके।

Comment by Albela Khatri on June 25, 2012 at 1:01pm

आदरणीय संजीव सलिल जी..........
गीत तो गीत है सदैव  आत्मतुष्टि  देता है. परन्तु गीत को जब संगीत मिल जाता है तो  वह पूरी तरह खिल  जाता है . आपका यह गीत किसी संगीत अथवा स्वर का मोहताज़  नहीं है . फिर भी  यदि यह गीत  स्वरबद्ध हो कर जन जन तक पहुंचे......तो कुछ अलग ही बात होगी.

धन्य हैं आप......इतनी विद्रूपताओं को  इतनी  आकर्षक शैली  में आपने सहज ही प्रस्तुत कर दिया ...आपको  बार बार नमन  !

राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...
*
राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...

___इससे ज्यादा क्या कहा जा सकता  है..........जय हो सलिल जी की !

Comment by Yogi Saraswat on June 25, 2012 at 10:41am

राजनीति में नीति नहीं है.
नयन-कर मिले प्रीति नहीं है.
तुकबंदी को कहते कविता-
रस, लय, भाव सुगीति नहीं है.
दिखे न फिर भी तम में
उजियारा अशेष है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...

राजनीति के कुत्सित चेहरे को पेश किया आपने , बहुत खूबसूरत शब्द

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on June 25, 2012 at 12:13am

राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा. 
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का 
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का 
गृह प्रवेश है...

राजनीतिक कुटिल महल की कलई खोलती कटाक्ष भरी ...सटीक रचना ..........भ्रमर ५ 

Comment by आशीष यादव on June 24, 2012 at 1:35pm

वाह आचार्य जी, एक बार फिर से एक शानदार रचना आपने हमे दी। पूरी की पूरी खराब व्यवस्था को चोट मारती है। 

Comment by Bhawesh Rajpal on June 24, 2012 at 10:01am

राजनीति का घृणित पसारा.
काबिल लड़े बिना ही हारा.
लेन-देन का खुला पिटारा-
अनचाहे ने दंगल मारा.
जनमत द्रुपदसुता का
फिर से खिंचा केश है.
लोकतंत्र में शोकतंत्र का
गृह प्रवेश है...

हरविंदर  ने जो तमाचा मारा था , वो एक नेता नहीं , बल्कि इसी शोक्तंत्र के मुंह पर तमाचा था ,  यदि  यही हाल रहा तो इस देश में बहुत हरविंदर  आगे   आने वाले हैं 
  आदरणीय  सलिल  जी , बहुत-बहुत बधाई !  

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 23, 2012 at 10:54pm

आचार्यवर, आपकी इस कविता की अंतर्धारा ही नहीं बल्कि पूरा का पूरा प्रवाह ही आजकी सत्तापरक घिनौनी व्यवस्था के प्रति क्रोध का प्रदर्शन है. यहीं कोई रचना जनरव बन जाती है जब सार्वभौमिक छटपटाहट को स्वर मिलता दीखता है.

सादर

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on June 23, 2012 at 5:53pm

आदरणीय सलिल सर, सत्य को दर्शाती रचना......बधाई 

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on June 23, 2012 at 4:58pm

आदरणीय सलिल जी, सादर यही सत्य है , सत्य के सिवाय कुछ नहीं है, बधाई.

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