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दोहा मुक्तिका: नेह निनादित नर्मदा संजीव 'सलिल'

दोहा मुक्तिका:
नेह निनादित नर्मदा
संजीव 'सलिल'
*
नेह निनादित नर्मदा, नवल निरंतर धार.
भवसागर से मुक्ति हित, प्रवहित धरा-सिंगार..

नर्तित 'सलिल'-तरंग में, बिम्बित मोहक नार.
खिलखिल हँस हर ताप हर, हर को रही पुकार..

विधि-हरि-हर तट पर करें, तप- हों भव के पार.
नाग असुर नर सुर करें, मैया की जयकार..

सघन वनों के पर्ण हैं, अनगिन बन्दनवार.
जल-थल-नभचर कर रहे, विनय करो उद्धार..

ऊषा-संध्या का दिया, तुमने रूप निखार.
तीर तुम्हारे हर दिवस, मने पर्व त्यौहार..

कर जोड़े कर रहे है, हम सविनय सत्कार.
भोग ग्रहण कर, भोग से कर दो माँ उद्धार..

'सलिल' सदा दे सदा से, सुन लो तनिक पुकार.
ज्यों की त्यों चादर रहे, कर दो भाव से पार..

* * * * *  

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Comment

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Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 2, 2013 at 9:14pm

समस्त आदरणीय गुरुजनों को नमन!
मैं यह नहीं जानता था कि मेरी एक भूल पर आचार्यवर को अपार कष्ट होगा,जबकि मेरा उद्देश्य कष्ट पहुंचाना नहीं था,यद्यपि शब्द संयोजन कुछ इसी प्रकार का था।

गुरुदेव को हुये कष्ट हेतु मैं क्षमाप्रार्थी हूं।जैसाकि आदरणीय बागी जी ने कहा है कि //हां मैं अवश्य मानता हूँ कि यहाँ "आईना दिखाना" मुहावरा का प्रयोग गलत हुआ, शायद दीया दिखाना कहना उचित होता किन्तु मुझे लगता है कि श्री विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी का आशय यहाँ गलत नहीं था ।//
सत्य कहा है।मैं यह कहना चाहता था कि यदि आपने गलती सुझाने या मात्रा कम करने के बारे में पूछा है तो मैं बताऊंगा अवश्य और सबको बताना चाहिये।लेकिन नादानी में मुहावरा लिख गया-आइना क्या दिखाना लेकिन यदि आपने कहा है तो इसका परिपालन होना चाहिये।

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 4:35pm

इत्तेफाकन ये दोहा मेरा ही था। मैंने ही राय मांगी थी। मैं इस पर चर्चा करना चाहता था परन्तु कुछ अध्ययन और खोजबीन में लगा था इसलिए आगे चर्चा को नहीं बढ़ा सका। इस संशोधन पर चर्चा की गुंजाइश थी।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 2, 2013 at 10:49am

सबसे पहले एक अनुरोध :-
कृपया चर्चा को विधा तक सिमित रखी जाय इसे व्यक्तिपरक न बनायीं जाय ।

दूसरी बात :-

आदरणीय आचार्य जी, अन्य विदुओं पर आवश्यकतानुसार और सही समय पर हम अपनी बात कहेंगे । किन्तु जिस बिंदु को सर्व प्रथम स्पष्ट करना आवश्यक प्रतीत होता है वह निम्न है ...........

//अभी कुछ दिन पूर्व ही एक युवा मित्र ने आइना दिखने की बात की थी जिसे मैंने विशेष महत्त्व नहीं दिया था//

इस घटनाक्रम को मैं हुबहू यहाँ रख रहा हूँ उसके बाद आप सहित ओ बी ओ परिवार के तमाम सदस्य विचार करें कि क्या उल्लेखित युवा मित्र का उद्देश्य आपके प्रति गुस्ताखी का था ....

आपने एक Status Massage लिखा था ......

sanjiv verma 'salil' posted a status


"अपनी अपनी सब कहें, अपनी अपनी सोच

एक दूजे की न सुनते, लड़ा रहे हैं चोच     इसमें कमी बतायें!" एक दूजे की न सुनते = १४ मात्राएँ, १३ होनी चाहिए."
Sunday

इस के प्रतिउतर में उल्लेखित युवा मित्र ने निम्नलिखित टिप्पणी लिखी ..

विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी विनय commented on sanjiv verma 'salil''s status

"आदरणीय आचार्यवर नमन! आप तो छंद के सिद्धहस्त पुरुष हैं,आपको आइना क्या दिखाना।तथापि यदि आपने आदेश दिया है तो उसका परिपालन होना चाहिये,मेरी तरफ से एक परिवर्तन प्रेषित है- //एक दूजे की न सुने,लड़ा रहे हैं चोंच।//"

हां मैं अवश्य मानता हूँ कि यहाँ "आईना दिखाना" मुहावरा का प्रयोग गलत हुआ, शायद दीया दिखाना कहना उचित होता किन्तु मुझे लगता है कि श्री विन्ध्येश्वरी त्रिपाठी  का आशय यहाँ गलत नहीं था ।

Comment by बृजेश नीरज on March 2, 2013 at 7:23am

यहां जो चर्चा चल रही थी उसमें मैंने फिराक साहब का एक दोहा प्रस्तुत किया था जिस पर शायद प्रबंधन मंडल ने विचार करना उचित नहीं समझा। बहरहाल चर्चा जिस क्लेष पर पहुंची है वह उचित नहीं है।
नए रचनाकार जिनको यहां कुछ सीखने को मिल रहा है उन्हें यह भी सीखने को मिलेगा। इस पर भी आप प्रबुद्ध जन विचार करें। आक्षेप प्रत्यारोप से इतर शुद्ध वातावरण में चर्चा को बनाए रखना चाहिए।
रचनाकारों में भ्रम तो पुस्तकों और पत्रिकाओं में जो छंद या गजल छप रही हैं या समसामयिक रचनाकारों की जो रचनायें पढ़ने को मिल रही हैं उससे पैदा हो रहा है। अच्छा होता कि उन भ्रमों पर एक स्वस्थ चर्चा का निर्माण किया जाता।

आदरणीय सलिल जी का नाराज होना अच्छा संकेत नहीं है। एक प्रबुद्ध व्यक्ति यदि इस जगह से अलग होता है तो उससे क्षति हम सबकी होगी। उनका मार्गदर्शन हमें कैसे प्राप्त होगा। उनकी उच्चस्तरीय ज्ञान गंगा और रचनाओं से हम सब वंचित हो जाएंगे। मेरा प्रबंधन मंडल से अनुरोध है कि आदरणीय सलिल जी के क्रोध को शांत करने का प्रयास किया जाए और उन्हें यहां अपनी सक्रियता जारी रखने के लिए राजी किया जाए।

Comment by sanjiv verma 'salil' on March 2, 2013 at 12:03am

माननीय योगराज जी !
वन्दे मातरम,
सादर निवेदन है की ओबॆओ से मेरी सदस्यता समाप्त कर दी जाए. मेरे पन्ने पर जो २१७ पोस्ट, १०६४ डिस्कशन तथा चित्र आदि हैं वे तत्काल हटा दिए जाएं. मं तहे दिल से स्वीकार करता हूँ कि आपकी आत्मीयता के कारण मैं इस मंच से जुडा था. क्रमशः आपकी कम होती सक्रियता और अपने मनोनुकूल वातावरण न होने स्वतः भी भागीदारी कम कर दी थी. कुछ मित्रों के आग्रह पर यहाँ फिर सक्रीय हुआ किन्तु शायद मुझसे गलत निर्णय हो गया. मैं इस मंच के अति उच्च स्तर के अनुकूल अपने आपको और अपनी रचनाओं को नहीं पाता. अभी कुछ दिन पूर्व ही एक युवा मित्र ने आइना दिखने की बात की थी जिसे मैंने विशेष महत्त्व नहीं दिया था किन्तु आज मुझ पर प्रबंधक मंडल के एक वरिष्ठ सदस्य ने निम्न आरोप लगाये हैं:
१. क्या रचनाकारों को उलझाना उचित है ?
२. माहौल को भी विवदास्पद बना देते हैं?
३. समझ और रचना को विधान के समकक्ष अपवाद की तरह खड़ा करना कत्तई शोभनीय नहीं है.
४. ऐडमिन से अनुरोध करूँगा कि इस पोस्ट के संदर्भ में आवश्यक निर्णय करे. अनावश्यक भ्रम और विवाद उचित नहीं.

मैं अपने किसी भी मित्र को कष्ट में नहीं डालना चाहता. अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जो मेरा संवैधानिक अधिकार भी है, को मैं कुछ मान्यताओं का बंदी नहीं बनाना चाहूँगा.

अतः, अपने उन मित्र की सुविधा और प्रसन्नता के लिए मैं  उक्त सभी आरोपों को देखते हुए स्वयं को तथा अपनी हीन रचनाओं को इस अति स्तरीय मंच के अनुपयुक्त मानते हुए पुनः मंच से निष्काषित कर समस्त सामग्री हटाये जाने का दंड दिए जाने का अनुरोध करता हूँ.
आपसे मेरी मित्रता और व्यक्तिगत सद्भाव पूर्व की तरह बना रहेगा.

 

Comment by बृजेश नीरज on March 1, 2013 at 11:11pm

आदरणीय प्रबुद्धजन,
हालांकि इस समय चर्चा का स्वरूप कुछ क्लेषमय प्रतीत होता है फिर भी मैं कुछ कहना चाहता हूं। वैसे देखा जाए तो मैं बहुत छोटा हूं इस चर्चा के लिए फिर भी छोटा मुंह बड़ी बात न माने तथा इस चर्चा में मेरे हस्तक्षेप को अन्यथा न लें तो एक दोहा प्रस्तुत कर रहा हूं इस आग्रह के साथ कि इस पर विचार करें।

जो न मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग
होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 1, 2013 at 9:39pm

आदरणीय सलिलजी, आपकी अति उच्च प्रतिष्ठा पर कोई आँच नहीं आने दी जायेगी , न ’आरोप लगाना’ शब्द मन में आना चाहिये. मैं ऐसा स्वप्न में भी नहीं सोच सकता. आप अति सम्माननीय हैं. मैं आपकी बहुत इज़्ज़त करता हूँ यह आपको खूब विदित है.

अति समृद्ध चर्चा को हम सभी आपके निर्देशन में संयत ही रखेंगे, हम परस्पर सीखेंगे और अनुकरणीय का उदाहरण बनायेंगे. छंदों के उपलब्ध नियम सदा से एक बात और तदनुरूप ही उनका प्रारूप सही बात रही है. इस पर आप जानते हैं मेरा टेक क्या रहा है. वही आजभी है.

आप वरिष्ठ हैं और व्यक्तिगत मेरे लिए अनुकरणीय हैं. सर्वप्रथम, मैं आपके कहे को पूरी तरह देख-समझ लूँ.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on March 1, 2013 at 9:34pm

आदरणीय संजीव जी,

विषम चरण पर मेरे संशय का धैर्य-वत प्रत्युत्तर आपने दिया जिसके लिए मैं आपकी आभारी हूँ. आपने अपनी रचना के चरणों में जो परिवर्तन दिए हैं वह बिलकुल गेयता अनुरूप होने के साथ ही शिल्प की कसौटी कर सधे हुए हैं..

मेरा मानना यही है कि किसी भी गंभीर रचनाकार को छंद रचना के समय नियमों में छूट लेने से सदा ही बचना चाहिए....

ऐसा आप भी हमेशा कहते हैं.

आदरणीय मुझ जैसे रचनाकारों ने आपके ही द्वारा प्रस्तुत दोहा छंद पर उदाहरणों से सीखा है... यह स्वीकार करनें में मुझे गर्व है.

लेकिन यदि हमारे जैसे गंभीर रचनाकारों की ही रचना में शिल्प में छूट ली जायेगी, तो नवरचनाकारों का भ्रम बढ़ सकता है... जिसे शायद आप भी स्वीकार करेंगे..

इस बारे में एक स्वस्थ चर्चा की आवश्यकता है ..

सादर.

Comment by sanjiv verma 'salil' on March 1, 2013 at 8:44pm

आदरणीय !

निवेदन है कि :

१. मैंने न तो किसी को उलझाया है, न ऐसा मेरा स्वभाव है. मैं आपके इस आक्षेप का दृढ़ता से विरोध करता हूँ। 

२. मैंने अपनी किसी पंक्ति पर पाठक की जिज्ञासा का समाधान मात्र किया है जो रचनाकार के नाते मेरा अधिकार है।

३. इस मंच पर या अन्यत्र कहाँ-क्या साझा हो चुका है, वह सब देखना मेरे लिए संभव नहीं है, न आवश्यक। यदि प्रबंधक महोदय का आशय ऐसा हो कि पूर्व प्रस्तुत सामग्री को देखे बिना, सहमत हुए बिना और उसका शत-प्रतिशत पालन किये बिना रचना न दी जाए तो यह निर्देश के तौर पर स्पष्ट किया जाए, तब रचनाकार स्वतंत्र होगा कि वह इस मंच पर रहे या न रहे। 

४. त्रिभंगी छंद पर चर्चा के समय अम्बरीश जी नियमों के कडाई से पालन के पक्ष में थे जबकि आप ने नियमों में शिथिलता की बात की थी। एक छंद के विषय में एक नीति, दूसरे छंद के विषय में दूसरी नीति कितना उचित है, विचार किया जाए।

५. मैंने इस या पूर्व पोस्ट में कोई निर्णय नहीं दिया है। माननीया प्राची जी की जिज्ञासा पर इसे स्पष्ट अपवाद कहा है। अंगरेजी में उक्ति है कि ''अपवादों से नियम की पुष्टि होती है (एक्सैप्शन्स प्रूव दि रूल)।''

६. बाद में प्रस्तुत सभी दोहों के रचनाकार समकालिक हैं, तो यह कोई अपराध नहीं है। समकालिक रचनाकार के लेखन की उपेक्षा क्यों की जाए। वे रचनाकार संपर्क किये जाने पर अपना पक्ष रख सकते हैं। मैंने उन्हें न तो सही कहा है, न गलत। प्रस्तुति इसलिए कि स्वस्थ चर्चा हो। मुझे बिलकुल नहीं लगता कि नवोदित रचनाकार इससे भ्रमित होंगे बल्कि उनके सामने ऐसे उदाहरणों से यह स्पष्ट होगा कि  कहाँ और कितनी छूट ली जाए या न ली जाए। आपको उन पर भरोसा नहीं तो यह मेरी समस्या नहीं है। 

७. प्रस्तुत हर दोहे का अपना महत्त्व है और इनमें कोई भी बिना विचारे दोहा ख़ारिज किये जाने योग्य नहीं है। ऐसा होता तो ये दोहे ''नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार'' संकलन में नहीं लिए गए होते। इन पर पिन्गलीय चर्चा कर इनकी खूबी या खामी समझाई जाने के स्थान पर संकीर्ण दृष्टि से आरोप लगाया जाना समझ के परे है। 

८. नियम मनुष्य ही बनाता है, और शिथिल भी करता है। किसी एक व्यक्ति को एक छन्द में छूट उचित प्रतीत हो, अन्य छन्द में नहीं तो यह उसकी समस्या है।

९. मेरा उद्देश्य यह है कि मैं अपने पाठकों और सहरचनाकारों से हर पक्ष पर चर्चा करूँ। इससे मुझे अपनी कमी विदित होती है और सुधारने का अवसर मिलता है। प्राची जी की जिज्ञासा पर मैंने स्वयं अपने दोहों में परिवर्तन सुझा दिए थे -

''लय-भंग हो रही हो तो निम्नवत कर लें:

कर जोड़े नित कर रहे, हम सविनय सत्कार.

 

सदा दा से दे 'सलिल', सुन लो तनिक पुकार.''

यह स्पष्ट संकेत था कि नियम को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। 

यह भी लिखा: ''आपकी जानकारी सही है. सामान्यतः विषम चरणान्त लघु-गुरु अथवा लघु से किया जाना चाहिए।'' 

होना यह चाहिए कि इन दोहों पर विस्तार से चर्चा हो। मत-विमत सामने आयें और सबको हर पहलू समझने का अवसर मिले. मैंने इन पर सभी की राय आमंत्रित की। आप इन्हें दोषपूर्ण मानते हैं तो स्पष्टतः कह सकते हैं, नए रचनाकारों को ऐसा नहीं करना चाहिए तो भी कह सकते हैं। इसके एथान पर निराधार आरोप लगाकर आपने मुझे क्लेश पहुँचाया है।

१०.  यदि आप अपने निराधार आरोप वापिस नहीं लेते तो मैं प्रबंधक महोदय से निवेदन करना चाहता हूँ कि मेरी सभी रचनाएँ यहाँ से हटा दी जाएँ तथा सदस्यता से मुक्त किया जाए। मैं ऐसी मंच को साझा नहीं करना चाहता जहाँ संविधान सम्मत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न हो।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 1, 2013 at 7:47pm

आपकी सूची में, आदरणीय आचार्य जी, कतिपय नाम ऐसे भी हैं जो अत्यंत समकालीन हैं, साथ-साथ मंच साझा करते हैं.
उनकी समझ और रचना को विधान के समकक्ष अपवाद की तरह खड़ा करना कत्तई शोभनीय नहीं है. दोहा शिल्प पर नासमझी के अंतर्गत हुआ प्रयास कतई मान्य नहीं होना चाहिये.
बल्कि आज के उन रचनाकारों को इसके प्रति अगाह कर दिया जाना अधिक श्रेयस्कर होगा बनिस्पत इसके कि शिल्प की नासमझी को उदाहरण बनाया जाय.

 

ऐडमिन से अनुरोध करूँगा कि इस पोस्ट के संदर्भ में आवश्यक निर्णय करे. अनावश्यक भ्रम और विवाद उचित नहीं.

 

सादर

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