2122 2122 212
फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
(बहरे रमल मुसद्दस महजूफ)
वृत्ति जग की क्लिष्ट सी होने लगी
सोच सारी लिजलिजी होने लगी
भीड़ है पर सब अकेले दिख रहे
भावनाओं में कमी होने लगी
चाहना में बजबजाती देह भर
व्यंजना यूँ प्रेम की होने लगी
धर्म के जब मायने बदले गए
नीति सारी आसुरी होने लगी
सूखती…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on February 28, 2014 at 10:31pm — 54 Comments
१. लगे अंग तो तन महकाए,
जी भर देखूं जी में आये,
कभी कभी पर चुभाये शूल,
का सखी साजन ? ना सखी फूल.
२. गोदी में सर रख कर सोऊँ,
मीठे मीठे ख्वाब में खोऊँ,
अंक में लूँ, लगाऊं छतिया.
का सखी साजन? ना सखी तकिया .
३ उससे डर, हर कोई भागे,
बार बार वह लिख कर माँगे.
कहे देकर फिर करो रिलैक्स.
का सखी साजन? ना सखी टैक्स ..
४. गाँठ खुले तो इत उत डोले,
जिधर हवा उधर ही हो…
ContinueAdded by Neeraj Neer on February 28, 2014 at 8:00pm — 31 Comments
सरस्वती वंदना (उल्लाला छंद पर आधारित )
हे माँ श्वेता शारदे , विद्या का उपहार दे
श्रद्धानत हूँ प्यार दे , मति नभ को विस्तार दे
तू विद्या की खान है ,जीवन का अभिमान है
भाषा का सम्मान है ,ज्योतिर्मय वरदान है
नव शब्दों को रूप दे ,सदा ज्ञान की धूप दे
हे माँ श्वेता शारदे ,विद्या का उपहार दे
कमलं पुष्प विराजती ,धवलं वस्त्रं शोभती
वीणा कर में साजती ,धुन आलौकिक…
ContinueAdded by rajesh kumari on February 28, 2014 at 3:54pm — 13 Comments
क़दमों में दे बहकी थिरकन
महकी नम सी चंचल सिहरन
बाँहों भर ले, रच कर साजिश
क्या सखि साजन? न सखि बारिश
हर पल उसने साथ निभाया
संग चले बन कर हम साया
रंग रसिक नें उमर लजाई
क्या सखि साजन? न सखि डाई
चाहे मीठे चाहे खारे
राज़ पता हैं उसको सारे
खोल न डाले राज़, हाय री !
क्या सखि साजन? न सखि डायरी
उसने सारे बंध…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 21, 2014 at 6:00pm — 44 Comments
इस विधा में मेरा प्रथम प्रयास(1से 10)
1)
रखती उसको अंग लगाकर।
चलती उसके संग लजाकर।
लगे सहज उसका अपनापन।
क्या सखि, साजन?
ना सखि, दामन!
2)
दिन में तो वो खूब तपाए।
रात कभी भी पास न आए।
फिर भी खुश होती हूँ मिलकर।
क्या सखि साजन?
ना सखि, दिनकर!
3)
वो अपनी मनमानी करता।
कुछ माँगूँ तो कान न धरता।
कठपुतली सा नाच नचाता।
क्या सखि साजन?
नहीं, विधाता!
4)…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on February 11, 2014 at 10:30am — 38 Comments
तेरे फड़फड़ाते पंखों की छुअन से
ऐ परिंदे!
हिलोर आ जाती है
स्थिर,अमूर्त सैलाब में
और...
छलक जाता है
चर्म-चक्षुओं के किनारों से
अनायास ही कुछ नीर.
हवा दे जाते हैं कभी
ये पर तुम्हारे
आनन्द के उत्साह-रंजित
ओजमय अंगार को,
उतर आती है
मद्धम सी चमक अधरोष्ठ तक,
अमृत की तरह.
विखरते हैं जब
सम्वेदना के सुकोमल फूल से पराग,
तेरे आ बैठने…
ContinueAdded by Vindu Babu on February 9, 2014 at 2:00pm — 32 Comments
उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास
मिले अब !
सूक्ष्म तरंगों में
सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता तब
क्लिष्ट मौन थी …
Added by Saurabh Pandey on February 7, 2014 at 6:30pm — 44 Comments
अनकही बातें धड़कतीं
मुस्कुराती
पल रही हैं.
थाम यादों की उँगलियाँ
स्वप्न जो
गुपचुप सजाये
शब्द आँखों में उफनते
क्या हुआ जो
खुल न पाये
भाव लहरें
तलहटी में
व्यक्त हो अविरल बही हैं.
रच गए जब
स्वप्न पट पर
नेह गाथा चित चितेरे
रंग फागुन से चुरा कर
कल्पनाओं में बिखेरे...
श्वास में
घुल कर बहीं जो
वो हवाएँ निस्पृही…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 4, 2014 at 9:30am — 23 Comments
हॅसी रूप कलियों का जब मुस्कुराया,
उदासी गर्इ भौंरा फिर गुनगुनाया।।
बहारों की रानी,
राजनीति पुरानी।
नर्इ-नर्इ कहानी,
जवानी-दीवानी।
महगार्इ बढ़ाकर,
नववधू घर आती।
दिशाएं भी छलती,
गरीबी की थाती।
अमीरों का राजा, अल्ला-राम आया।। 1
सजाते हैं संसद,
समां बर्रा छत्ता।
परागों को जन से,
चुराती है सत्ता।
अगर रोग-दु:ख में,
पुकारे भी जनता।
शहर को जलाकर,
कमाते हैं भत्ता।
चुनावों…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 3, 2014 at 10:30pm — 14 Comments
ऋतुराज के स्वागत में पांच दोहे
स्वागत तव ऋतुराज
चंप पुष्प कटि मेखला, संग सुभग कचनार।
गेंदा बिछुआ सा फबे, गल जूही का हार।१।
.
बेला बाजूबंद सा, कंगन हरसिंगार।
गुलमोहर भर मांग में, करे सखी श्रृंगार ।२।
.
पहन चमेली मुद्रिका, नथिया सदाबहार।
गुडहल बिंदी भाल दे, मन मोहे गुलनार।३।
.
जूही गजरा केवडा, सजे सखिन के बाल।
तन मन को महका रही, मौलश्री की माल।४।
.
झुमका लटके कान में, अमलतास का आज।
इस अनुपम श्रृंगार…
Added by Satyanarayan Singh on February 3, 2014 at 5:30pm — 23 Comments
बदला है वातावरण, निकट शरद का अंत ।
शुक्ल पंचमी माघ की, लाये साथ बसंत ।१।
अनुपम मनमोहक छटा, मनभावन अंदाज ।
ह्रदय प्रेम से लूटने, आये हैं ऋतुराज ।२।
धरती का सुन्दर खिला, दुल्हन जैसा रूप ।
इस मौसम में देह को, शीतल लगती धूप ।३।
डाली डाली पेड़ की, डाल नया परिधान ।
आकर्षित मन को करे, फूलों की मुस्कान ।४।
पीली साड़ी डालकर, सरसों खेले फाग ।
मधुर मधुर आवाज में, कोयल गाये राग ।५।
गेहूँ की बाली मगन, इठलाये अत्यंत ।…
Added by अरुन 'अनन्त' on February 3, 2014 at 12:00pm — 29 Comments
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |