उमा-उमा मन की पुलकन है
शिव का दृढ़ विश्वास
मिले अब !
सूक्ष्म तरंगों में
सिहरन की
धार निराली प्राणपगी है
शैलसुता तब
क्लिष्ट मौन थी
आज भाव से
आर्द्र लगी है
हल्दी-कुंकुम-अक्षत-रोरी
तन छू लें
अहिवात निभे अब !!
तत्सम शब्द भले लगते थे
अब हर देसज
भाव मोहता
मौन उपटता
धान हुआ तो
अंग-छुआ बर्ताव सोहता
मंत्र-गान से
अभिसिंचित कर.. !
सृजन-भाव सत्कार लगे अब !!
जब काया ने
सृष्टि-चितेरा
हो जाना
स्वीकार किया है
उत्सवधर्मी परंपराओं
का शाश्वत व्यवहार
जिया है
कुसुम-रंग-अनुभाव प्रखर हैं
शिव-गण का
उत्पात रुचे अब !!
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-सौरभ
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(मौलिक और अप्रकशित)
शैलसुता - उमा का एक रूप ; अहिवात - सुहाग ; अनभाव - गुण
Comment
आदरणीय सौरभ भाईजी
शक्ति, शिव से मिलने आतुर हैं । घोर तपस्या के बाद प्रेम निवेदन स्वीकार होने और विवाह की तैयारियों से मन पुलकित है, संकोच और लज्जा के भाव भी हैं, देवी की तरह नहीं एक सामान्य नारी की तरह। शिव-गण का
उत्पात रुचे अब !! सच है ऐसे अवसरों बच्चों के हुडदंग भी अच्छे लगते हैं
चुन-चुनकर शब्दों का सुंदर प्रयोग हुआ है इस लयात्मक नवगीत में । जब किसी की प्रतिक्रिया भी नहीं आई थी , सरसरी तौर पर पढ़कर आगे बढ़ गया था , कुछ सिर के ऊपर से भी निकल गया। हृदय से बधाई इस श्रेष्ठ कृति पर । सभी पाठकों की प्रतिक्रिया पढ़कर और भी आनंद आया।
शायद यही कुछ भाव सीताजी के मन भी उठे हों श्रीराम को पहली बार देखकर
भाई आशीष अन्चिन्हारजी, नवगीत को अनुमोदन हेतु आपका हार्दिक आभार .. . तथ्या जानकारी सार्थक है.
शुभ-शुभ
क्षेपक-१
हम कितने ही महान विद्वान क्यों ना हो, डाक्टर की पर्ची देखते ही मगज घूम जाता है। मगर हमारी हिम्मत नहीं होती कहने की, कि डाक्टर बाबू जरा पर्ची सरल शब्दों मे लिख दो।
क्षेपक-२
जरा सोचिये कि अगर सरल और हल्का ही सही है तो फिर हम हलुआ, पूड़ी मलाइ जैसे गरिष्ठ भोजन क्यों करते है।
क्षेपक-३
अब मेरे इन पंक्तियों का सौरभजी से कोई संबंध नहीं है इसके लिये मुझे गैर-जिम्मेदार मान लिजीए।
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उमा-उमा मन की पुलकन है
इस पंक्तिमे उमा शब्द को दोहराया गया है। क्यों?
मेरे विचार से पहला उमा "निषेधवाची" है और दूसरा "संज्ञावाची"। अर्थात "नहीं" "उमा" की मन की पुलकन बन गई है, मगर क्यों?
कथा है कि पार्वती के कठिन व्रत से घबड़ा कर शंकर दौड़े आये और पार्वती को मना किया कि बस अब और कठिन व्रत की जरूरत नहीं है। "उ-मा" अर्थात " हे-नहीं"| यहीं से पार्वती को "उमा" नाम मिला है। क्या किसी अन्य स्त्री को इस तरह के निषेध का सौभाग्य मिला है।
इस नवगीत की अन्य पंक्तियां तो बस इसी भाव को पुष्ट कर रही है।
बधाइ सौरभजी को अलंकारिक रचना केलिए।
गणेशभाईजी, आपने इस नवगीत मूल स्वर को पहचाना और मुख्य शब्द को रेखांकित किया यह आपकी काव्य-संवेदनशीलता को साझा करता है.
हार्दिक धन्यवाद भाई
सादर धन्यवाद आदरणीय प्रदीपजी.
भाई अरुण श्री, आपने अपनी प्रतिक्रिया में जिन इंगितों के सहारे प्रस्तुत नवगीत को ऊँचाई दी है उसके लिए हार्दिक धन्यवाद.
आपके मौन निवेदन से रोमांच हो आया है.
शुभ-शुभ
आदरणीय डॉ आशुतोष मिश्रजी, आपको मेरा प्रयासकर्म रुचिकर लगा, इसके लिए सादर धन्यवाद.
आदरणीया सरिताजी, प्रयास सार्थक लगा इसके लिए आपको सादर धन्यवाद
आदरणीय राजेश मृदुजी, आपने जिस उत्फुल्लता से प्रस्तुत रचना को मान दिया है वह आपकी वैचारिक और मानवीय हाव-हाव की सूक्ष्म परख को साझा करता है.
हार्दिक आभार
आपको जो और जिस शब्द-युग्म पर अटकाव लगा वह हमारे-आपके क्षेत्र भाषायी उच्चारण के कारण मात्र है. आप उत्सवधर्मी परम्पराओं को उत् सव धर् मी परम् परा ओं की तरह उचारण करें तो यह अटकाव कत्तई नहीं होगा. जिस तरह से अक्षरों के द्विकल और त्रिकल बन रहे हैं वह मात्रिकता को संयत ढंग से संतुष्ट करते हुए है.
वस्तुतः हम अपने आंचलिक उच्चारण में परम्पराओं को प्रम्प्राओं कहने के आदी हैं.
पुनः इस गीत पर आपसे प्रशंसा पाना मेरे रचनाकर्म के लिए उत्साह का कारण है.
सादर
प्रस्तुत गीत पर समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद केवल प्रसादजी.
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