परम आत्मीय स्वजन,
"ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" के 55 वें अंक में आपका हार्दिक स्वागत है| इस बार का मिसरा -ए-तरह मशहूर शायर और हिंदी फिल्मों के सबसे बड़े गीतकार जनाब मज़रूह सुल्तानपुरी साहब की ग़ज़ल से लिया गया है| पेश है मिसरा ए- तरह
"न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे "
1212 1122 1212 112/22
मुफाइलुन फइलातुन मुफाइलुन फइलुन/फेलुन
मुशायरे की अवधि केवल दो दिन है | मुशायरे की शुरुआत दिनाकं 30 जनवरी दिन शुक्रवार लगते ही हो जाएगी और दिनांक 31 जनवरी दिन शनिवार समाप्त होते ही मुशायरे का समापन कर दिया जायेगा.
नियम एवं शर्तें:-
विशेष अनुरोध:-
सदस्यों से विशेष अनुरोध है कि ग़ज़लों में बार बार संशोधन की गुजारिश न करें | ग़ज़ल को पोस्ट करते समय अच्छी तरह से पढ़कर टंकण की त्रुटियां अवश्य दूर कर लें | मुशायरे के दौरान होने वाली चर्चा में आये सुझावों को एक जगह नोट करते रहें और संकलन आ जाने पर किसी भी समय संशोधन का अनुरोध प्रस्तुत करें |
मुशायरे के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है....
मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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उमेश जी बधाई स्वीकारें ...
आदरणीय उमेश भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , ग़ज़ल के लिये बधाइयाँ ।
उमेश जी, अच्छी गजल की बधाई
मिले खुशी भी उसे और जिन्दगी में चमक
दुआ यहीं ये मेरा दिल भी बार बार करे....बहुत खूब हार्दिक बधाई
मुझे न दुनिया उन उश्शाक़ में शुमार करे
कि कोई तंगनज़र जिनपे इख़्तियार करे
न तीर में वो असर है न ये कटार करे
जिगर हो चाक जो अपना ही कोई वार करे
तेरे लबों के तबस्सुम से खिल उठे दिलो जाँ
जो ये करे मेरे दिलबर न वो बहार करे
हर एक लफ़्ज़ गुहर की तरह चमकता है
मेरी ग़ज़ल को तेरा हुस्न ताबदार करे
दिले हरीफ़ में नादान फ़ैज़ ढूँढे है
ख़ुलूसे शम्अ हवाओं पे ऐतबार करे
जला चराग न महरूम रौशनी से रहें
“न जाने कब हो सहर कौन इंतिज़ार करे”
न जाने कैसे हवादिस से ज़िन्दगी गुज़री
कि अब गुरेज मुहब्बत से अश्क़बार करे
(उश्शाक़= आशिकों, तंगनज़र =संकुचित दृष्टिवाला, दिले हरीफ़= दुश्मन का दिल
ख़ुलूसे शम्अ = शम्अ की निष्कपटता फ़ैज़= भलाई)
(मौलिक व अप्रकाशित)
न तीर में वो असर है न ये कटार करे
जिगर हो चाक जो अपना ही कोई वार करे.................क्या बात है। अति सुंदर। अपनों का वार ही अधिक मार करता है।
हर एक लफ़्ज़ गुहर की तरह चमकता है
मेरी ग़ज़ल को तेरा हुस्न ताबदार करे..................सौंदर्य पर सुंदर शेर।
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आदरणीय दयाराम मेठानी जी रचना की सराहना के लिये आपका आभारी हूँ
बहुत शानदार ग़ज़ल हुई है शिज्जू भैया ,सभी शेर पसंद आये
दिले हरीफ़ में नादान फ़ैज़ ढूँढे है
ख़ुलूसे शम्अ हवाओं पे ऐतबार करे--इसके लिए तो विशेष दाद
न जाने कैसे हवादिस से ज़िन्दगी गुज़री
कि अब गुरेज मुहब्बत से अश्क़बार करे----क्या खूब
बहुत बहुत दाद कबूलिये
आदरणीया राजेश दीदी आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया हेतु आभार आपको ग़ज़ल पसंद आई रचनाकर्म सार्थक हुआ।
दिले हरीफ़ में नादान फ़ैज़ ढूँढे है
ख़ुलूसे शम्अ हवाओं पे ऐतबार करे
न जाने कैसे हवादिस से ज़िन्दगी गुज़री
कि अब गुरेज मुहब्बत से अश्क़बार करे
बेहतरीन ! ढेर सारी बधाइयाँ कुबूल करें आदरणीय शिज्जु साहब ।
आदरणीय कृष्ण सिंह जी रचना की सराहना के लिये आपका तहेदिल से शुक्रिया
//हर एक लफ़्ज़ गुहर की तरह चमकता है
मेरी ग़ज़ल को तेरा हुस्न ताबदार करे// क्या तग़ज़्ज़ुल है, वाह वाह।
बहुत खूबसूरत अशआर हुए हैं भाई शिज्जू शकूर जी, गिरह भी बेहद कसी हुई है। इस मुरस्सा कलाम पर ढेरों ढेर बधाई।
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