आदरणीय साथिओ,
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लघुकथा प्रदत्त विषय से न्याय कर रही है, जिस हेतु मेरी दिली बधाई प्रेषित है। मैं जानता हूँ कि यह लघुकथा एक सत्य घटना पर आधारित है, मगर पढ़कर संतोष हुआ कि आपने इसमे थोड़ी सी कल्पना शक्ति का पुट डालकर इसे निरा समाचार बनने से बचा
जिम्मेदार नागरिक होने का दायित्व निभाते समय जब इस तरह की बेतुकी बाते होने से ही लोग पीछे हटते हैं,बेहतरीन रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजियेगा आदरणीया अर्चना दी.
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी आदाब,
बेहतरीन , सशक्त और कटाक्षपूर्ण लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीया अर्चना जी, प्रदत्त विषय पर बढ़िया लघुकथा कही है आपने। मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए।
1. //जिम्मेदार नागरिक कोई भी पुलिस से बात करने को तैयार नही हुआ। // "पर कोई भी पुलिस से बात करने को तैयार नहीं हुआ।"
2. //अब तक पेट्रोलिंग पुलिस पहुंच चुकी थी और वह पुनः एकबार बयान देने को विवश थी// इस वाक्य को निकाल देंगी तो लघुकथा बेहतर हो जाएगी।
सादर।
आस्था
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मैं परिक्रमा के लिए निकलने को तैय्यार बैठा माता जी के साथ चाय पी रहा था कि रवि आ गया। मुझे तैय्यार देखते बोला,
“तुम मान नहीं रहे हो, जाओगे जरूर?’’
मैं सिर्फ मुस्करा दिया।
वह नहीं माना , बोला, “मेरी समझ में नहीं आता , इतनी लम्बी परिक्रमा कर के तुम कौन सा अपना या किसी और का भला कर लोगे?
अच्छी भली छुट्टी थी , दो दिन आराम करते , मौज रहती , पर तुम तो तुम हो , जाओगे जरूर , पता नहीं क्या मिल जाएगा।’’
मैं न चाहते हुए कह बैठा , “ कुछ मिल जाएगा , कह नहीं सकता , पर अपनी सहनशीलता बढ़ जाएगी , एक आत्म-विश्वास बढ़ जाएगा कि मैं इतना पैदल चल सकता हूँ , बस , काफी है ’’
“वो तो ट्रेड मिल पर रोज चलते हो , मिलता नहीं ? ’’ रवि का प्रश्न सटीक था।
मैंने एक ठंडी सांस ली और मुस्करा कर पूछा , “ अपनी सोसायटी के वॉचमैन को देखते हो , रात भर जाग के पहरा देता है , सड़कों पर सिपाहियों को देखते हो , दिन -रात , धूप में, अँधेरे में चलते-फिरते रहते हैं, कभी देश के सैनिकों के बारे में सोचा है , वे कैसी-कैसी ठण्ड और गर्मी में रात- दिन पहरा देते हैं , हम तो सिर्फ छोटी सी एक परिक्रमा करके स्वयं में एक विशवास जगाते हैं कि ईश्वर हमारी सामर्थ्य को बनाये रखे , हमें सहन-शीलता दे , हम किसी भी कठिन परिस्थिति में विचलित न हों , हम यह कह सकें , हाँ , यह मैं कर सकता हूँ क्योंकि मैंने बीस कोस की परिक्रमा की है। बस , इतना ही मिल जाए , बहुत है।’’
रवि को मेरी भाषण सी बातें कुछ अच्छी नहीं लगीं , बोला , “ तुम्हारी इन बातों पर मैं विश्वास नहीं करता ? ’’
इस बार मैंने उसे अधिक बोलने ही नहीं दिया और तुरंत कह उठा ,“ ये प्रश्न मेरी अपनी आस्था का है , तुम विश्वास करो , न करो। मेरी आस्था बदल नहीं जाएगी। ’’
वह एक पल को बिलकुल शांत हो गया , मैंने मुस्करा के कहा , “ हमारे विश्वास रोज बनते बिगड़ते हैं , पर हमारी अस्थायें अडिग होती हैं।विश्वास प्रायःहम दूसरोँ पर करतें हैं पर हमारी आस्थाएं हमारे अंतर-विश्वास और अवधारणाओं पर अवलम्बित होती हैं।”
इस बार वह कुछ नहीं बोला। मैंने ही कहा , “मेरी बात पर ध्यान देना , कभी मन होगा तो तुम भी चलना , अच्छा लगेगा।”
वह चलने को खड़ा हुआ , बोला , “ कहीं छोड़ दूँ तुम्हें , कार से?”
मैंने अपना छोटा सा झोला उठाया , माँ के पैर छुए और उसकी पीठ पर हाथ रख कर कहा , “ बस मेरी परिक्रमा तो यहीं से पैदल शुरू।”
मौलिक एवं अप्रकाशित
प्रदत्त विषय को एक अहम धार्मिक/आध्यात्मिक/दार्शनिक आयाम बाख़ूबी देती विचारोत्तेजक, यथार्थपूर्ण, कटाक्षपूर्ण, किंतु शिक्षाप्रद और प्रेरक रचना। बेहतरीन सृजन हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और एतद द्वारा हमें मार्गदर्षित करने हेतु हार्दिक आभार आदरणीय डॉ. विजय शंकर साहिब । अंतिम पंक्ति में /मान = मां/। पात्र 'मैं' के साथ बेहतरीन प्रस्तुति।
आदरणीय शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी , आपने बड़े मनोयोग से लघु-कथा को पढ़ा है और उसकी सार्थकता को आशीर्वाद दिया है। आपका बहुत बहुत आभार।
आपके द्वारा इंगित टाइप की त्रुटि को संशोधित कर दिया गया है , धन्यवाद , सादर।
संशोधन —कृपया अंतिम पंक्ति में “ मान के पैर ”के स्थान पर “ माँ के पैर ” पढ़ें। धन्यवाद।
आली जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,प्रदत्त विषय को सार्थक करती हुई हर एतिबार से एक शानदार और कामयाब लघुकथा,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , आपकी टिप्पणी से लघु-कथा को पूर्णता प्राप्त हुई , सार्थकता मिली। आपका बहुत बहुत आभार और ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
एक धार्मिक यात्रा को जिस प्रकार मनोवैज्ञानिक तथा शारीरिक तंदुरुस्ती से जोड़ा वह विशेष आकर्षण है।
आस्था को नया दृष्टिकोण देने के लिए बधाई।
आदरणीय अजय गुप्ता जी , आपकी उपस्थिति एवं लघु-कथा को स्वीकृति प्रदान कर उसका मान बढ़ाने के लिए हार्दिक आभार एवं धन्यवाद , सादर।
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