आदरणीय साथिओ,
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बढ़ीया लघुकथा हुई है आदरणीय मोहम्द आरिफ साहिब । लघुकथा के शीर्षक के लिए विशेष रूप से शुभकामनाएं ।
आ. आरिफ़ साहब आदाब. बहुत अच्छी रचना कहीं है आपने बधाई स्विकार किजिए
यह बात बिलकुल सच है कि आज के दौर में बेशतर लोग दान-पुण्य या सेवा केवल अपने मन की संतुष्टि के लिए ही करते हैं, और यही आपकी लघुकथा का केन्द्रीय भाव भी है. मुझे सबसे अच्छी बात जो इस रचना में लगी वह है केसरीमल जैन साहब की निर्भीक स्वीकारोक्ति. इसे कथानक का नयापन भी कहा जा सकता है, क्योंकि ऐसी बातें अक्सर लघुकथाओं में देखने सुनने को नहीं मिलती है. जिस हेतु आपको हार्दिक बधाई देता हूँ. कुछ बातें और कहना चाहूँगा:
1. भाई सुनील वर्मा और चंद्रेश कुमार छ्तलानी जी की बातों पर पूरी सहमति है कि रचना में अभी कसावट की कमी है. प्रारंभ में केसरीमल जी की फराखदिली का ज़िक्र आवश्यकता से अधिक हो गया है.
2. किसी पात्र का पूरा नाम लिखने के पीछे कोई औचित्य होना चाहिए, जो आपकी इस लघुकथा में कहीं नज़र नहीं आ रहा, अत: केसरीमल जैन की बजाय केवल केसरीमल या जैन साहिब कहने से भी बात बन सकती थी. जिसका इशारा आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय जी कर चुके हैं.
3. यदि इस कथानक पर इस अकिंचन को लघुकथा कहनी होती तो केसरीमल जैन खुद विज़िटर बुक लाने को क़तई न कहते, अंत में लोग कयास ही लगते रहते लेकिन विजिटर बुक पर लिखा स्वांत सुखाय कोई न देखता. क्योंकि मेरा मानना है कि ऐसा मस्त मौला इंसान क्योंकि स्वांत सुखाय वाली बात (या राज़) का प्रचार स्वयं कभी नहीं करता.
कितनी विलक्षण दृष्टि से आपने इस बात को देखा और समझाया है आदरणीय सर | सादर धन्यवाद् |
बहुत सुंदर और भावपूर्ण रचना प्रदत्त विषय पर, बहुत बहुत बधाई आपको
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